________________
१६५
इत्येवं प्राप्ते उच्यते--कंपनात्, कंपनमत्रप्रथम वाक्यार्थः । स च भयहेतुकः । प्रविशेषेण सर्वजगत्कंपन भगवद्हेतुकमेव भवति ।
उक्त मत पर कंपनात्" सूत्र प्रस्तुत करते हैं। कहते हैं कि--इसके प्रथम बाक्य का तात्पर्य कंपन से है, वह कंपन भयहेतुक ही है सामान्यतः समस्त जगत के कंपन की बात परमात्मा से ही संभव हो सकती है।
न चैकान्ततो वज्र इन्द्रस्यैवायुधं भवति । अग्नि हृदयत्वात् “तस्यतातस्य हृदयमा छिन्दत् साऽशनिरभवत्" इति श्रुतेः । तस्मान्मारकरूपमेवेदं भगवतः । प्राणशब्दवाच्यत्वं तु पूर्वमेव सिद्धम् । तस्मात्सर्वजगत्कम्पनं भगवत्कृतमिति भगवानेव वाक्यार्थः ।
वज्र केवल इन्द्र का ही अस्त्र नहीं है । वह तो अग्नि हृदय है "तम्यतातस्य' इत्यादि से ऐसा ही निर्णय होता है। यह भगवान् का मारक रूप अस्त्र है । प्राण शब्द भगवान का ही वाचक है यह पहिले ही निर्णय कर चुके हैं । इसलिए समस्त जगत का कंपन भगवतकृत ही है, भगवान ही उक्त वाक्य क वर्ण्य विषय है । ज्योतिर्दर्शनात् ॥१॥३॥४०॥ ___ “स एप संप्रसादोऽस्माच्छरीरात् समुत्थाय परं ज्योति रभिसंपद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते" इति, तत्र संशयः, परंज्योतिर्महाभूत रूपं ब्रह्म वा? इति ।
"यह चैतन्य इस शरीर से उठकर परं ज्योति से संपन्न होकर अपने रूप को प्राप्त करता है" यहाँ संशय होता है कि-परं ज्योति, महाभूत है अथवा ब्रह्म?
ब्रह्मधर्माश्च ये केचित् सिद्धायुक्त्यापि साधिताः । निर्णायकास्ततोऽप्यन्ये चत्वारोऽत्र निरूपिता : ।।
तथ रूढयोपपत्त्या च महाभूतमेव ज्योतिः । इत्येवं प्राप्ते उच्यते-ज्योतिः ब्रह्म व कुतः ? दर्शनात्, सर्वत्रदर्शनं न्याय इति यावत् । सुषुप्तो सर्वत्र "सता सौम्य तदा संपन्नो भवति, सति संपद्य न विदुः, सति संपद्यामहः"