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णार्थं ‘स समानः सन् जीवतुल्यः सन् क्रीडति" इत्याह । तस्योभयधर्मा अप्युच्यन्ते f. यामात्रस्य तन्मूलत्वाय । तत्र हि चत्वारि स्थानानि-अयं लोकः परलोकः स्वप्न इति त्रयं जीव समानतया अनुभवति । तत्र स्वप्नस्य मिथ्यात्वाद् दवयमेव । सुषुप्तं च चतुर्थं, जीवस्यतु मोक्षोऽपि ।
जिस मत मे जीव के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन किया जाता है, उसमें तो प्रकरण जीव परक है । जो स्वतंत्ररूप से ब्रह्म को ज्ञय मानते हैं उनके मत से यह ब्रह्म परक है । यद्यपि अर्थ स्पष्ट होने से उसमे कोई संदेह का अवकाश नहीं है
मिक हेतु दिखलाते हुए सूत्रकार सूत्र में भेदेन" पद प्रयोग करते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि-प्रकरण में- क्या यह ज्योति जीव है ? ऐसा प्रश्न करने पर सूर्य चंद्र अग्नि वाणी प्रादि का निराकरण करते हुए इसे आत्मज्योति कहा गया, इस ज्योति का आत्मा भगवान ही है, ऐसा उत्तर दिया गया। "वह प्रात्मा कंसा है ?" पुनः ऐसा प्रश्न करने पर "जो विज्ञानमय, ज्ञानरूप इन्द्रियों और हृदय में प्रकाशमान है" ऐसा उत्तर दिया गया। "जीव भी ऐसा हो सकता है ?" ऐपी जिज्ञासा करने पर उसके निराकरण में कहा कि- "वह परमात्मा समान होकर, जीव के समान क्रीडा करता है।" उक्त प्रसंग में आगे दोनों के गुणों का समानरूप से वर्णन किया गया, क्रियामात्र परमात्मा की पृथक्ता ज्ञात होती है इस लोक, परलोक और स्वप्न इन तीन अवस्थाओं में जीवात्मा, परमात्मा के समान अनुभूति करना है। स्वप्न, मिथ्या हैं अतः इंसमें जीव को ही विशेष अनुभूति होती है । सुषुप्ति चौथी अवस्था है, जीव की एक मुक्तावस्था भी है।
तत्रास्मिल्लोके जीवस्यानी शिरवंप्रत्यक्षसिद्धम् । मोक्षेत्वैक्यम् । स्वप्नस्तु माया । अतः परंद्वयमवशिष्यते । तत्रश्र त्यैव भेदः प्रतिपादितः ।
इस लोक में जीव की परतंत्रता प्रत्यक्ष देखी जाती मुक्तावस्था में दोनों की समान अवस्था रहती है । स्वप्नावस्था तो माया है ही। केवल दूसरी परलोक की अवस्था शेष रहती है, उसी में श्र ति ने भेद का प्रतिपादन किया हैं।
तत्र भगवतो जीव साम्ये अन्तःकरणेन्द्रियधर्माः प्रापुन्वति इति तत्रा