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मीशानत्वादि धर्माः । अंगुष्ठमात्रं पुरुषं निश्चकर्ष यमो बलादिति तन्निवृत्यर्थम् । तस्मादंगुष्ठमात्रो न भगवान् ।
प्रसंगतः पुर्नः बाधक श्रुति संबंधी शंका उपस्थित कर समाधान करते हैं । " जो आत्मा में अंगुष्ठ मात्र पुरुष स्थित है" उस अंगुष्ठ प्रमित पुरुष की निर्धूम ज्योति है " इत्यादि श्रुति भी है " यावान् वा भयमाकाशः " से जिस व्यापक की अन्तः स्थिति प्रतीत होती है, उसी की मात्रता भी प्रतीत होती है । दोनों विरुद्ध वर्णन हैं जिससे स्थिति समझ में आती है, जैसे कि जीव दूसरे शरीर में जाता है, वैसे, यहाँ ईशानत्व आदि धर्म वाला उसका स्वरूप, संभवतः उपासना को दृष्टि से बतलाया गया है। अंगुष्ठ मात्र पुरुष को ही यम बलात् ले गए थे, उसे ही लौटाने के लिए सावित्री ने प्रयास किया था इससे भी जीव ही की अंगुम्ठ मात्रता निश्चित होती हैं, भगवान् अंगुष्ठ मात्र नहीं है ।
यहाँ अंगुष्ठ जीव की ही
एवं प्राप्तमतउत्तरमाह शब्दादेव प्रमितः श्रत्र संदेह एव न कर्त्तव्यः, शब्दादेव प्रकर्षेण विमानात् । यथा दहर वाक्ये सूक्ष्मस्यैव व्यापकत्वं, तथा अंगुष्ठ मात्रस्यैवेशानत्वम् । यदि भगवान् तादृशो न स्यात् अन्यस्य तादृशत्वं नोपपद्य ेत् । तस्माद्भगवतः सर्वतः पाणिपादान्तत्वात् यत्र यावानपेक्ष्यते तत्र तावन्तं श्रुतिर्निरूपयतीति, अंगुष्ठमात्रः परमात्मेति सिद्धम् ।
वाक्य में
उक्त प्राप्त मत पर “शब्दादेव प्रतिमः “सूत्र' बनाकर उत्तर देते हैं, कहते हैं, यहाँ तो संदेह की गुंजायश ही नहीं है ईशान् श्रादि शब्द से ही अंगुष्ठ परिमित की महिमा प्रकट होती है जैसे कि दहर सूक्ष्म की व्यापकता स्वीकार ली गई वैसे ही अंगुष्ठ मात्र की स्त्रीकारनी चाहिए । यदि भगवान् में ही वैसे होने की क्षमता नहीं मानेंगे तो, किसी और में तो वैसी क्षमता हो नहीं सकती । सर्वव्यापक भगवान को जहाँ जिस स्थान में जिस रूप से उपयुक्त समझती हैं वहीं
ईशानता
. वैसा ही उनका वर्णन श्रुतिं करती हैं, इसलिए अंगुष्ठ मात्र परमात्मा ही हैं ऐसा सिद्ध होता है ।