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करनी चाहिये ।" उसके प्रकाश से सब कुछ प्रकाशित है।" इसमें बतलाया गया है कि सूर्यादि में स्वतः प्रकाश नहीं है, जैसे कि घट में स्वयं प्रकाशता नहीं होती। भगवान के प्रकाश से ही ये सब प्रकाशित होते हैं। स्वतः प्रकाश न होने से लक्षणा या कर्मत्व रूप से उन सबकी भगवत परकता सिद्ध होती है, दूसरे अर्थ कल्पना की गुंजायश ही नहीं है।
अपिस्मयते ।।३॥२३॥
व्याख्यातेऽर्थेसम्मत्यर्थमाह । अपीति समुच्चयः “न तद्भाषयते सूर्यो न शंशाको न पावकः" यदादित्यगतं तेजो जगद्भासयतेऽखिलम्, यच्चन्द्रमसि यच्चाग्नौ तत्तेजो विद्धि मामकम्" इति च । तस्माद् भगवान् एव सर्वावभासकः तमेव सर्वमनुकरोतीति सिद्धम् ।
प्रकरण के व्याख्यात् प्रथं को ही सम्मत अर्थ बतलाते हैं-सूत्र में किया गया अपि शब्द का प्रयोग समुच्चय बोधक है ।" उस गोलोक में न तो सूर्य का प्रकाश होता है न चंद्र का न अग्नि का" सूर्य के जिस तेज से अखिल जगत प्रकाशित होता है तथा जो चंद्र और अग्नि का प्रकाश है उसे मेरा ही प्रकाश जानो" इत्यादि स्मृति वाक्य भी उक्त प्रकरण के ही समर्थक हैं । इससे निश्चित होता है कि भगवान् ही सब के अवभासक हैं। उनका ही सब अनुकरण करते हैं।
७. अधिकरण :--
शब्दादेवप्रमितः ।।३।२४॥.
प्रसंगात् पुनर्बाधकान्तरमाशंक्य परिहरति “यदंगुष्ठमात्रः पुरुषो मध्य प्रात्मनि तिष्ठति" ईशानो भूत-भवस्य न ततो विजुगुप्सति "तथा अंगुष्ठ मात्रः पुरुषो ज्योतिरिवाघूमकः" : "इति तत्र व श्रूयते । "यावान् वा प्रयमकाश" इति व्यापकत्वमन्तःस्थितस्य प्रतीतम् । अंगुष्टमात्रता चात्र प्रतीयते । अतो विरोधाज्जीवस्यैव लोकान्तरगन्तृदेहवत् उपासनार्थ