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उक्त तर्क संगत नहीं है, उन देवताओं में अनेक प्रकार की प्रतिपत्तियाँ मिलती हैं, अर्थात् उनके अनेक कर्मों में संलग्न होने के उल्लेख मिलते हैं। "साध्या वे देवा" इत्यादि में दिखाया गया है कि वे देवता सुवर्ग की कामना से यज्ञ करते हैं, अग्निष्टोम यज्ञ से धन की कामना करते हैं, वे उक्य से रुद्रों का यजन करते हैं । वे अतिरात्र यज्ञ से सूर्य का यजन करते हैं। तथा "प्रजापति इन्द्र ने सौवर्षतक ब्रह्मचर्य का पालन किया" एवं "देवा व सत्रमासते" इत्यादि में पृथ्वी में पाकर ऋषियों को वरण कर यज्ञ करने की बात कही गई है । दर्शन संबधी श्रुति उनके स्वयं ऋत्विम् होने और कर्म करने को बतलाती है। इस प्रकार समस्त पदार्थों की अनेक अतिपत्ति और अनेक प्रयोगों का वर्णन किया गया है, जैसे कि-यज्ञ में, चतुर्द्धा करण, परिधिप्रहरण, तुषोपवपन मादि क्रियायें देवताओं के सानिध्य में ही होती हैं, उनकी अनुपस्थिति में नहीं। जहाँ कोई पदार्थ का प्रभाव रहता है, उसके बिना भी क्रिया की जाती है "पर्वतेसोमवाहका" इत्यादि वाक्य इसी बात का उल्लेख करते हैं। “यज्ञन यज्ञमयजन्तदेवाः" "इति संभृत संभारः" इत्यादि वाक्य सर्वसंभृति और सर्वोवपत्ति को ही बतलाते हैं । आधुनिकों के लिए प्राचार्य जैमिनि ने वेदों के विभाग करके सब कुछ ' निर्णय कर दिया है । इससे कर्म का अधिकार प्रौर कर्म का पालन देवादिकों का भी निश्चित होता हैं। .. सम्ब इतिचेन्नातः प्रभवात् प्रत्यक्षानुमानाभ्याम् ॥१॥३॥२८॥
ननु मास्तु कर्मकरणे बिरोषः, शब्दे तु भविष्यति, अर्थज्ञानानन्तरं हि कर्मकरणम् । वेदाच्चार्थज्ञानम् । तत्र साध्यादीनां वेद एवं कर्मकरणं श्रयते । तत्र ज्ञाने कर्मकत्त विरोधः । अन्यकल्पनायांत्वनवस्था व्यवस्थापकाभावात् । वेदो वसूनां वृत्तान्तं वदन वसूनामधिकारं वदेत वदनवा कथमनित्यो न भनेदिति चेन्न । प्रतः प्रभवात् । अतः शब्दात् प्रभवः शन्दोक्तपदार्थानाम् ।
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देवताभों के कर्म करने की बात में तो कोई विरुद्धता नहीं होगी किन्तु, शब्द में तो हो सकती हैं, शब्द का पहिले सही अर्थ तो ज्ञात हो, तब फिर कम करने वाली बात का निर्णय हो । वैदिक शब्दों से ही अर्थ करना होगा, वेद में ही साध्य आदि के कर्म की बात कही गई है, बेद जन्य ज्ञान पुर