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" जैसे कि कर्म में, निषादस्थपत्ति को इससे बोजित करते हैं वही उसकी इष्टि है" इत्यादि श्रुति में यज्ञादिकर्म में निषाद आदि शूद्र के ग्रहण की बात आई है, इससे यजन उपासना श्रादि में उसका अधिकार निश्चित होता है । इसी प्रकार संवर्ग विद्या में भी शूद्र का अधिकार प्रतीत होता है । इस मत के निराकरण के लिए ही यह अधिकरण प्रस्तुत करते हैं ।
एवं श्रूयते -- " जानश्रुति पौत्रायणः" इत्यत्र हंसवाक्मश्रवणानन्तरम् सयुग्वनोरमिक्वस्य समीपंगतः जानश्रुतिः पोत्रायरण “ र यिक्वेमानि षट्शतानि गवाम्" इत्यादिना देवतां पृष्टः प्रत्युवाच महहारेत्वा शूद्र तवेव सह गोभिरस्तु" इत्यादिना जानश्र ुति शूद्र शब्देन संबोध्य, पुनश्च "शुद्रानेन मुखेन” इत्युक्त्वा संवर्ग विद्यामुपदिष्टवान् श्रतोऽत्रविद्यायां जातिशूद्रस्यापि अधिकारः ।
ऐसी श्रति है कि - " जानश्रुतिर्ह पौत्रायणः" इत्यादि हंसवाक्य को सुनकर, जानश्रुति पौत्रण, बैलगाड़ी वाले रयिक्व के पास ब्रह्मविद्या सुनने गया " हे रयिक्व ये छः सौ गायें लेकर मुझे ब्रह्मविद्या दो" इत्यादि से देवता को जानने की इच्छा की उस पर रयिक्व ने कहा - " अहह ! अरे ! तुझ शूद्र के साथ गौवें" इत्यादि से जानश्रुति को शूद्र शब्द से संबोधित करके पुनः 'शूद्र को इस प्रकार बतलाते हैं" - ऐसा संवर्ग विद्या का उपदेश दिया । इससे ज्ञात होता है कि विद्या में का भी अधिकार है ।
कहकर उसे शूद्र जाति
इत्याशंक्य परिहरति । नात्रशूद्रशब्दो जातिशूद्रवाची किन्तुमत्सरयुक्तस्त्वमत्र नाधिकारीति तथा संवोधनम् । तदाहशुक् शोकः, श्रस्य जानश्रुतेः समजनि, तत्रहेतुः, तदनादरश्रवणात् । तस्माद्धंसादनादरस्य श्रवणात् । "कं वर एनमेतत् सं तं सयुग्वानमिव रयिक्वमात्थेतिस्वापकर्ष श्रव । किमत ? यद्य बमत श्राहतदाद्रवरणात्, तत्तदनन्तरम् श्राद्रवणात् । शुचमनु प्राद्रवतीति शूद्रः । परोक्षवादार्थ दीर्घः सर्वज्ञत्वज्ञापनाय । रूढिर्योगम१हरतीति न्यायात् कथमेवमत श्राह — सूच्यते हि स्वस्य सर्वज्ञत्वं सूच्यते, हंसवाक्याच्छोके जातेत्वमागत इति । प्रन्यथा प्रपन्नस्य धिक्कार वचनमनर्थं