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. उन सब देवताओं के अनधिकार की बात तो प्रत्यक्ष ही दीखती है, वे सारे ही देवता नक्षत्र मादि रूप से प्रकाशवान हो कर जगत को अवमा सित करने वाले ज्योति स्वरूप हैं "अग्निः पुच्छस्य" इत्यादि श्रुति यही बात बतलाती है । ऐसे ऐश्वर्य प्राप्त मोक्ष देने वाले स्वयं उपास्य देवताओं के लिए ज्ञान कर्म का क्या उपयोग है ? इसलिए देवताओं का अनधिकार निश्चित होता है। .
इत्येवं प्राप्ते उच्यते-उक्त मत पर कहते हैं
भावंतु बादरायणोऽस्ति ।।३॥३३॥
तु शब्दः पक्ष व्यावर्त्तयति । भावं देवानामधिकारस्य सद्भावम् । बादरायण आचार्यः । गौण सिद्धान्ताभावाय स्वनाम ग्रहमणम् । किमाण ज्ञानेन, तथासति तुल्यत्वमतमाह, अस्तिहि अस्ति वेदे-"प्रजापतिरकामयत प्रजायेयेति", स एतदग्निहोत्रं मिथनमपश्यत् 'तदुदिते सूर्येऽजुहोदिति", देवा के सत्रमासत" इत्यादिभिः कर्माधिकारी निश्चितः । “तद् यो यो देवानां प्रत्यबुद्यत स एव तदभवत्" इत्यादि । तथा इन्द्र प्रजापति संवादे"ब्रह्मा देवानाम्" इति च, एवमेवं विधर्वाक्यदेवानामप्यधिकारोऽस्ति यत्र च. पुनर्देवानां फलभोग एव प्रतीयते न करणं, तत्रापि तेषामधिकारोऽङ्गी कर्तव्यः । हि युक्तोऽयमर्थः । एते हि वसव प्राधिदैविकभगवदवयवभूतः । अनशनात्, अन्यथा वसुंत्वादि विरोधः यवसूनां प्रातः सवनमित्यादिवत् । म हि जीवविशेषा दृष्ट्वा तृप्यन्ति । तस्मादिदं ब्रह्मप्रकरणमेव । न वा पूर्वकल्पेन निर्णयः तथा सति तेषामभावादनुपास्यत्वम् । अनित्यताच वेदस्य स्यात् तस्माद् देवानामधिकार इति, शब्दबलविचार एवं युक्त इति सिद्धम् ।
सूत्रस्थ तु शब्द पूर्व पक्ष का निरसन करता है । भाव शब्द देवों के अधिकार के सद्भाव का द्योतक है उक्त मत पर जो सिद्धान्त प्रस्तुत कर रहे हैं, वह गौण नहीं हैं, ये भाव दिखलाने के लिए सूत्रकार अपना नाम बादरायण देकर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं। वे कहते हैं कि केवल ऋषि मत का कोई महत्त्व नहीं है जब कि वेद के प्रमाण उपस्थित हों, इस