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न केवल हंस के कथन मात्र से क्षत्रिय, शूद्र हो सकता है । उपदेश के प्रसंग से भी उसके क्षत्रित्व की पुष्टि होती है ।
तथापि सवर्गविद्यायां शूद्रस्यैवाधिकारं मन्वानस्य निराकरणार्थ हेतुमाह - उत्तरत्र चैत्ररथेन लिंगात् " प्रथह शौनकं च कापेयमभिप्रतारिणं च काक्षसेनिमित्युत्तरत्र ब्राह्मणक्षत्रियो तो निर्दिष्टौ । कक्षा सेना यस्येति, कक्षसेनस्यापत्यं काक्षसेनिरिति । अस्तय व्याख्यानं चैत्ररथ इति । चित्रा रथा यस्य तस्यापत्यं तेन चैत्ररथेन । कक्षा रूपा रथा इति व्याख्यानम् । एतेन वै चित्ररथं कापेया प्रयाजयन् इति । शौनकश्च कापेयो याजकश्च । याज्यस्य चित्ररथस्य पुत्रः काक्षसेनिः इति । ब्रह्मचारी ब्रह्मवित् । इमोतु संवर्ग विद्योपासको प्राणाय हि भिक्षा, तस्मान्न ददतुः । उभावपि श्लोकौ भगवतः । तेन प्रकृतेऽप्येत गुरुशिष्यों ब्राह्मणक्षत्रियावेवेति गम्यते । तस्मान्न जाति शूद्रः संवर्ग विद्यायामधिकारी ।
इस पर भी जो लोग संवर्ग विद्या में शूद्र के अधिकार की बात करते हैं, उसका निराकरण कहते हुए कहते हैं कि उक्त प्रसंग के उत्तरार्द्ध के "अथह शौनकं च कापेयमभिप्रतारिणं च काक्षसेनिम्" इत्यादि में स्पष्ट रूप से रयिक्व और जानश्रुति को ब्राह्मण और क्षत्रिय कहा गया है कक्ष सेन के पुत्र क्षत्रिय काक्ष सेनि और अभिप्रतारिक्षत्रिय के साथ इस प्रसंग जनश्रुति को भी भोजन दिया गया उसमें कपि गोत्र के शौनक ब्राह्मण याजक थे वे भी उस भोज के सदस्य थे, यज्ञ करने वाला चित्ररथ का पुत्र काक्षसेनि था । ये ब्रह्माचारी अर्थात् ब्रह्मविद् को, ये दोनों संवर्ग विद्या के उपासक प्राणतत्त्व की ही भिक्षा करते थे इसलिए इन्हें भिक्षा नहीं दी गई इस प्रसंग में कापेय ने भगवान प्रजापति की प्रशस्ति में दो श्लोक का गान किया था। इससे निश्चित हुआ कि इस विद्या के अधिकारी स्वभावतः ब्राह्मण और क्षत्रिय ही गुरु और शिष्य होते थे । निश्चित ही संवर्ग विद्या में शूद्र जाति का अधिकार नहीं था ।
संस्कार परामर्शात तदभावाभिलापाच्च | १|३|३६||
इदानीं शूद्रस्थ
चिदपि
ब्रह्मविद्यायामधिकारश्चेदत्रापि करूप्येत,