________________
१८५
माता, स्त्री, पति के शरीर और गंगा आदि में अनादि काल से जो इन्हीं नामों से व्यवहार होता पाता है वह केवल परमात्म रूप के कारण ही है, इसीलिए वेद का कथन है “तदेवेदम्" अर्थात् यह जगत वही है "ये सूर्य और चन्द्र, प्राकाश और पृथिबी इत्यादि की इस धाता ने पूर्व सृष्टि के अनुसार ही कल्पना कर दी।" स्मृतियों में भी जैसे-"यह सारा जगत प्रात्मयोनि और मास्ममय है, हे धाता ! तुम मेरे में पहिले से ही सोई हुई सारी सष्टि को देखकर वैसी की वसी बना दो।" ऋषियों ने समाधि द्वारा पूर्व वृत्तांतों को स्मरण कर के लिखा है इसलिए ये सब स्मृतियाँ कहलाती हैं । इस प्रकार अर्थ बल के अनुसार बिचारने से भी पदार्थों की नित्यता सिद्ध होती है इसीलिए वेद की अनित्यता की बात भी असंदिग्ध हो जाती है। मध्याविष्वसंभवादनधिकारं जैमिनिः ।।३।३।।
- अर्थबलविचारे एवं कदेशेन पूर्वपक्षमाह । ननु मध्वादि विधासु देवानामनधिकारात् सर्वत्रवानधिकारः । तथाहि-"असोवा आदित्यो देवमधु तस्य धोरेव" इत्यादिना सूर्यस्य देवमधुत्वं प्रतिपादितम्, रश्मीनां वेदत्वं च । तत्र वसुरुवादित्यमरुत्साध्याः पंचदेवगणाः स्वमुख्येन मुखेनाऽमृतं दृष्ट्व तृप्यत्ति । पंचविधा एव च देवाः, स्वतःसिद्ध च तेषां तन्मधु । अनुपासकरवान्न देवान्तरकल्पना, कृतार्थत्वाच्च, ब्रह्मणोऽपि देवत्वम् । आदि शब्देन सर्वा एव देवोपासन विद्या गृहीताः । अतस्तेषामुपास्यत्वात्कृतार्थ त्वाच्च नाधिकारः । न हि प्रयोजनव्यतिरेकेण कस्यचित् प्रवृत्तिः संभवति मोक्षस्याप्यधिकार निवृत्तावुत्तरमार्गवत्तित्वात् स्वत एव सिद्धिः। यावदाधिकारमिति न्यायात् । वसूनयाजयदित्यत्रापि भाविन्येव संज्ञः । तस्मान्मनुष्याधिकारकमेव ज्ञानं कर्म चेति न देवानामधिकार इति जैमिनिराचार्यो मन्यते । मनुष्य णमेव ज्ञानकर्मणोस्तरतमभाववतां तत्तद्रूपभोगानन्तरं मोक्ष प्राप्तेरिति ।
अर्थबल के विचार पर, एक पक्षीय जैमिनि प्राचार्य का मत प्रस्तुत करते हैं कि मधु आदि विद्यानों में देवतामों का उपधिकार नहीं कहा गया है इसलिए, सभी विद्यामों में उनका अधिकार नहीं है, यही बात