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समझ में आती है। जैसा कि "असौवा प्रादित्यो देवमधु" इत्यादि वाक्य में सूर्य का देवमधुत्व और रश्मियों का वेदत्व ज्ञात होता है। उक्त प्रसंग में वसुरुद्र प्रादित्य मरुत और साध्य आदि पांच देवगण अपने मुख्य अग्नि इन्द्र, वरुण, सोम, ब्रह्म आदि मुखों से अमृत को देखकर ही तृप्त हो जाते हैं उन पंचविध देवताओं का स्वतः सिद्ध मधु है । ये नहीं कह सकते कि उपास्य रूप से जिन देवताओं का उल्लेख किया गया है वे दूसरे हैं, मर्थ के आधार पर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता। यदि ऐसा कहेंगे तो फिर ब्रह्म का देवत्व भी निश्चित हो जायेगा जिससे उपास्य उपासक व्यवस्था ही समाप्त हो जायेगी। प्रादि शब्द से सूत्र में सभी देवोपासन विद्याओं का ग्रहण होगा। उन सभी में उपास्य और कृतार्थत्व रूप से अनधिकार की बात निश्चित होती है । विना प्रयोजन के किसी की किसी कार्य में प्रवृत्ति नहीं होती देवताओं को उपासना का क्या प्रयोजन हो सकता है ? इन्हें मोक्ष के लिए उपासना की आवश्यकता पड़े ऐसा भी नहीं कह सकते, क्यो कि मुक्त जीव जिस देवयान मार्ग से परमधाम जाते हैं, वह तो इन्ही का स्वतः मिद्ध खला हुमा मार्ग है। जिस मार्ग पर इन्हीं का अधिकार है उस पर जाने के लिए इन्हे कौन रोक सकता है । यदि कहें कि-"सोऽग्निष्टोमेन बसूनयाजयत्" इत्यादि से जब इनका यागाधिकार सिद्ध है तो उपासना अधिकार मानने में क्या हानि है ? सो इस प्रसंग में भी भाव का ही वर्णन है यथार्थ नहीं। इस प्रकार प्राचार्य जैमिनि ज्ञान और कर्म में केवल मनुष्य का ही अधिकार मानते हैं, देवताओं का नहीं मानते। उनके मत से मनुष्यों को ही ज्ञान और कर्म के अनुमार श्रेष्ठ से श्रेष्ठतम रूपों की प्राप्ति होते हुए मोक्ष प्राप्ति होती है।
ज्योतिषिभावाच्च ।१॥३॥३२॥
किंव-तेषां सर्वेषामनधिकारः प्रत्यक्षत एव दृश्यते सर्वं हि नक्षत्रादि रूपेण महाभोगवन्तो जगदवभासकत्वेन ज्योतिश्चक्रे दृश्यते । “अग्निः पुच्छस्य" 'प्रथमकाण्डमित्यादि 'श्रु तेश्च । न हि तादृशां प्राप्तश्वयंतां सर्वो पास्यानां मोक्षदातागो ज्ञानकर्मणोः कश्चनोपयोगोऽरित तस्मादनधिकार एव देवानाम् ।