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विषय में वेद में स्पष्टतः देवताओं के उपासनाधिकार का उल्लेख मिलता है-जैसे कि-"प्रजापतिरकामयत, स एतदग्निहोत्रं, तावुदिते सूर्य, देवा वै सत्रमासत" इत्यादि वचनों से कर्माधिकार निश्चित होता है। "तद् यो यो देवानां, इत्यादि तथा इन्द्र प्रजापति संवाद में-"ब्रह्म देवानां "इत्यादि तथा ऐसे ही अनेक वचनों से देवताओं के अधिकार की बात सिद्ध होती है । जहाँ देवों के फलभोग की चर्चा आती है, वहाँ भी उनसे अधिकार को ही समझना चाहिए, भोग को नहीं । यही सही अर्थ है । ये वसु आदि, आधिदैविक रूप से भगवान के अवयव रूप हैं। ये भोग नहीं करते, ये बात ही इनकी भगवदवयवता की परिचायिका है। यदि इन्हें अंग नहीं मानेंगे तो इनके वसुत्व आदि की सिद्धि नहीं हो सकेगी, जैसे कि-यजमान को वस आदि के अधिकारी वासव आदि सामगान से प्रातगदि सवन देते वैसे ही देवतानों के प्रसंग में भी अमृत दान मात्र ही रह जायेगा, वसु प्रादि भाव नहीं रहेगा । जीवविशेष कभी देख कर ही तृप्त नहीं हो सकते वे तो भोग ही करते हैं, देवता ही एक मात्र देख कर सृप्त होते हैं । इसलिए यह प्रकरण ब्रह्म परक ही है । जो श्रुतियां देवोपासन की सी बात करती हैं वो भी भगवदंश आधिदैविक भाव को ही बतलाती हैं। पूर्व पक्ष का निर्णय युक्ति संभत नहीं है। यदि उसका निर्णय माम लें तो देवताओं की सत्ता ही समाप्त हो जायेगी और उपास्य भाव समाप्त हो जायेग, साथ ही वेद भी अनित्य हो जावेंगे । इसलिए शब्दवलविचार से देवताओं के अधिकार की बात ही सिद्ध होती है ।
६ अधिकरण :--
शुगस्यतदनादरश्रवणात् तदाद्रवणात् सूच्यतेहि ॥१॥३॥३४॥
इदानीं शूद्रस्याधिकारी निराक्रियते । “यथा कर्मणि एतया निषादस्थपति याजयेत् साहि तस्येष्टिः" इति श्रुतेर्ह विष्कृदाधावेति शूद्रस्येति लिंगात् दोहादी च शूद्रस्याधिकारः । एवं इहापिसंवर्गविद्यायां शूद्रस्याधिकारः, इति तन्निराकरणार्थमिदमधिकरणमारभ्यते ।
अब शूद्र के अधिकार की बात का. निराकरण करते हैं। कि