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विचारने पर तो कर्म कत्त का विरोध घटित होता है अर्थात् यज्ञों के कर्ता
और यज्ञों के साध्य देवता ही कहे गए हैं । यदि साध्य रूप में किन्हीं अन्य देवताओं की कल्पना करें तो अव्यवस्था दोष घटित होगा, उन देवताओं का व्यवस्थापक किसे मानेंगे? वेद वसुओं का वृत्तान्त वर्णन करते हुए, वसुत्रों के अधिकार का भी वर्णन करते हैं, क्या उसका यह कथन अनित्यता का बोधक नहीं है ? इत्यादि शंकायें संभव नहीं हैं क्यों कि-उक्त प्रसंग में जो प्रतः शब्द का प्रयोग किया गया है वह प्रभव अर्थात् पदार्थों की उत्पत्ति का सूचक है।
. वेदोक्ताः सर्व एव पदार्था आँधिदविका एव, पुरुषावयवभूताः, सर्वानुकारित्वाद् भगवतः । प्रतों नामपंचों वेदात्मको भिन्नएवांगीकत व्यः, स केवलं शब्दकसमधिगभ्यः । “वेदश्च सवैरहमेववेद्यः" इति । अतस्तस्य प्रपंचस्य भिन्नत्वान्न विरोधः शब्द । कथं ? अत माह प्रत्यक्षानुमानाम्याम् । प्रत्यक्षं तावद् इदानीमपि यजमानो यजमान कृत्यं ऋत्विजश्च स्वकृत्यं वेदादेवावगच्छन्ति । नचाकृतिमात्रवाचकत्वेनाविरोधः । सर्ववलक्षणाप्रसंगात । "यः सिक्तरेताः स्यात्" इत्यादिषुविरोधश्च । न च प्रवृत्तिनिमित्तस्यैव वाच्यत्वम् । प्रवृत्तिवैयापत्तः, संकेतग्रहविरोधाच्च । सर्वस्यापि पदार्थस्य भगवत्वान्नानुपस्थिति दोषः, संकेतग्रहेपि ।
- वेदोक्त सारे ही पदार्थ प्राधिदैविक हैं, परं पुरुष के अवयव स्वरूप हैं, भगवान से ही संचालित हैं। नाम से ही समस्त वैदिक पदार्थों को भिन्न मानना चाहिए, जो कि केवल शब्द से ही भिन्न प्रतीत होते हैं । जैसा कि-भगवान् ने स्वयं कहा भी है - "वेदेश्चसर्वैरहमेव वेद्यः" इत्यादि । इसलिए वैदिक समस्त प्रपंच भिन्न होने से केवल सन्द में ही विरुद्ध प्रतीत होता है । प्रत्यक्ष और अनुमान दोनों से ही इस बात की पुष्टि होती है प्राज भी, यजमान, यजमानकृत्य, ऋत्विकृत्य और स्वकृत्य आदि का निर्णय वेदों से ही किया जाता है। देवताओं की प्राकृतिम त्र के वाचक शब्दों से अविरोध की बात नहीं कही जा सकती, क्यों कि-उनमें तो स्पष्ट भिन्नता है, शब्द सामर्थ्य से तो उस भिन्नता का निराकरण नहीं हो सकता फिर तो लक्षणा करनी पड़ेगी । “यः सिक्तरेताः स्यात्" इत्यादि में स्पष्ट विरोध है । शब्दों की वाच्यता को प्रवृत्ति निमित्तक भी नहीं कह