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सकते, ऐसा मानने से तो, प्रबृत्ति ही व्यर्थ हो जायेगी (अर्थात् जिस आधार पर देवताओं की उपामना में प्रवृत्ति होती है, उससे तो अभिन्नता निश्चित नहीं हो सकती, यदि उससे अभिन्नता निश्चित हो तो अलग अलग देवताओं की उपासना प्रवृति हो ही क्यों ?) ऐसा मानने से सांकेतिक शब्दों का प्रयोग भी व्यर्थ हो जायगा । समस्त पदार्थ भगवदंश ही हैं इसलिए अनवस्था दोष नहीं होता । सांकेतिक शब्दों से भी उक्त दोष नहीं होगा।
जमदग्नीनां पंचावत्तमित्यनुमानम्, न हि स्वयं जामदग्न्य इति प्रत्यक्षोऽनुभवोऽस्ति । परोक्षव्यवहारस्यवानुमानत्वमिति ब्रह्मवादः तस्मात् प्रत्यक्षानु मानाम्यामिदानीन्तन भौतिकयज्ञपदार्थेषु भगवदवयवावेशस्तथाऽमुत्रापि । तस्मादिकः पदार्थः सर्वोऽप्याधिदैविको भिन्न इति सिद्धम् ।
जैसा कि मनुष्यत्व का प्रत्यक्ष ज्ञान होता है, वैसा ज्ञान परमात्मा की सार्वभौम सत्ता के विषय में नहीं होता वह तो अनुमान पर ही आधारित होता,वह अनुमान प्रत्यक्ष के आधार पर ही होता है। जैसे कि-जमदग्नि पुत्र परशुराम को देखकर उनके स्वभावानुसार छात्र अंश का अनुमान हुआ, वैसे ही प्रपंच जगत में विचार करने पर परमात्मत्व का अनुमान होता है । ब्रह्मवाद में, प्रत्यक्ष वस्तु के निहित परोक्ष व्यवहार से ही ब्रह्मत्व का अनुमान किया जाता है। इस प्रकार प्रत्यक्ष और अनुमान के आधार पर प्रारंभ से लेकर अब तक भौतिक यज्ञ पदार्थों में भगवदवयवों की प्रतीति की जाती है इसलिए समस्त वैदिक पदार्थ, आधिदैविक रूप से भिन्न है. यही निश्चित मत है।
प्रतएव च नित्यत्वम् ।।३२६॥
साधिकां विशेषोपपत्तिमाह । प्रतएवं अस्मादेवहेतोवेदस्यनित्यत्वम् । सर्वप्रपंचवलक्षण्येन, चकारात् ब्रह्मतुल्यत्वम् । शब्द "ब्रह्म" वेद पुरुषइत्यादि। वाच्यत्वम् । अस्यास्तुसृष्टेब्रह्मोपादानस्य सर्वज्ञतयाँ कथनं तन्माहात्म्य निर पणार्थम् । बान्धिका ह्यषा । मोचिकातुसा । प्रतएवं ऋषीणामप्यत्र मोहः, निःश्वसितवचनाच्च । तस्याप्ययं प्राणभूतो नित्य इति । अर्थप्राधान्याद