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अंगुष्ठमात्र निरूपणार्थं मनुष्याधिकारे निरूपिते कस्यचिद भ्रमो भवेत सर्वत्रमेव ब्रह्मविद्यायां मनुष्याणामेवा धिकारः इति । तन्निराकरणार्थं देव दीनामधिकारमाह । यदुपर्यपि, मनुष्यापेक्षयाक्तिनानामधिकारो नास्ति । तत्रापि वैदिकहेतोस्त्रवरिणकानां धर्मयुक्तानामागतम् । ततोऽपि ये साध्यादयो धर्म युक्तास्तेषामप्यधिकारः। तत्र जैमिनिप्रभृतीनांसंम्मतिरिति स्वनाम ग्रहणम् । विशिष्टत्रैवर्णिकानारभ्य प्रजापतिपर्यन्तं शतानदिनामाधिकारं मन्यते बादरायणः । कुतः ? संभवात् । संभवति तेषां ज्ञानाधिकारः । धर्मज्ञानाम्यां सातिशयाभ्यां हि तादृशजन्मसभवात् । न हि तेषां पूर्वसंस्कारो लुप्यते । अक्षरपर्यन्तं शतोत्कर्षश्रवणादुपर्यपेक्षा । अतोऽक्षरप्राप्तेः शुद्धब्रह्मविद्या हेतुकत्वादुत्तरोत्तरमुपदेष्टणां विद्यमानस्वात् प्रजापति पर्यन्तं सर्वेषामधिकारः संभवति । संभव वचनान् दुर्लभा. धिकारस्तति सूचितम् । "यो यो देवानां प्रत्यबुध्यत स एव तदभवत तथर्षीणां तथा मनुष्याणाम्” इति । तदुपर्यप्यधिकारः सिद्धः ।
मंगुष्ठ मात्र की उपासना में भ्रम हो सकता है कि केवल मनुष्य के अधिकार की बात कही गई तो ब्रह्मविद्या में केवल मनुष्य का ही अधिकार होगा क्या? इस संशय के निवारण में सूत्रकार, देवादि योनियों के अधिकार को भी बतलाते हैं मनुष्यों से इतर पशुओं में योग्यता का अभाव है इसलिए उनका अधिकार नहीं है, उसी कोटि में वे मनुष्य भी प्राजाते हैं जिनके वैदिक संस्कार नहीं होते शूद्र प्रादि तथा यज्ञोपात मादि संस्कार रहित तीन वर्ण । इसके अतिरिक्त जो भी देवता गण हैं उन सभी का अधिकार है । जैमिनि प्रादि ने भी नाम गिनाते हुए इसमें अपनी सम्मति दी है। संस्कार युक्त तीन वर्षों से लेकर प्रजापति तक का उपासना में, बादरायण अधिकार मानते हैं क्यों कि उनमें ज्ञान की अर्हता है, धर्म और ज्ञान की प्रतिशयिता होने पर ही तो जीव को देवत्व प्रप्ति होती है, देवत्व प्राप्ति के बाद भी उनके पूर्व जन्म संस्कारों का लोप तो होता नहीं । अक्षर पर्यन्त सौगुने उत्कर्ष की बात, उपासना से ही संभव हो सकती है । अक्षर प्राप्ति में शुद्ध ब्रह्मविद्या ही एक मात्र हेतु हैं इसी से, बादरायण ने सौगुनी बुद्धि की उत्तरोत्तर चर्चा करते हुए प्रजा पति की भी उपासना की अहंता मानी हैं । वहीं दुर्नभाधिकार की सूचना दी गई है "जिन-जिन देवतामों की उपासना करता है, वही होता है",