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यत्रेत्यधिकरण सप्तमी, यत्र लोकान्तरस्थितानां अप्यभानं, तत्राऽग्नेः का वार्ता इति वचनात् सत्यलोकस्थितः कश्चित् तेजोविशेष एव वाक्यार्थ :। - दहर विरुद्ध वाक्य पर सशय करते हुए परिहार करते हैं । "वहां न तो सूर्य का प्रकाश होता है न चंद्र का न तारों को, ये बिजलियाँ भी नहीं चमकतीं फिर इस अग्नि की तो चर्चा ही क्या है ? उसके प्रकाश से ही सब प्रकाशित होते हैं, उसके प्रकाश से ही ये सारा जगत प्रकाशित हो रहा है" ऐसी कठवल्ली की एक श्रुति है, तत् और यत् शब्दों की एकार्थता से तो यह प्रसंग ब्रह्म परक ज्ञात होता है किन्तु अर्थ पर संशय होता है क्यों कि-"जिसमे धू लोक" इत्यादि वाक्य में सूर्य आदि को ब्रह्म पर आधारित बतलाया गया है, और इस वाक्य के पूर्वार्द्ध में उन सूर्य आदि के प्रकाश को ईश्वर के समक्ष तुच्छ कहा गया है-- जो जिस स्थान पर सदा स्थित रहे
और वहां उसका प्रकाश न रहे, वह कहां जाकर प्रकाशित होगा? ऐसी कर्मत्व संबंधी जिज्ञासा से उक्त श्रुति बाधित होती हैं ।" यत्र शब्द अधिकरण सप्तमी का है, उक्त वाक्य का तात्पर्य होता है कि जिस लोक में सूर्य आदि का ही प्रकाश नहीं है तो अग्नि की क्या चर्चा है ? इससे तो यही समझ में आता है कि कोई तेज विशेष ही उक्त वाक्य का उल्लेख्य है।
इत्येवं प्राप्ते उच्यते-अनुकृतेस्तस्य-भगवदनुकारार्थमेवैतद्वचनम्, स्वतोभान निषेधः पूर्वार्द्ध । सर्वोऽपि पदार्थस्तमेवानुकरोति, सूर्यरश्मय इव छायापुरुषम् इव । तस्माद् वाक्ये भगवदनुकारित्ववचनात् न नानार्थकल्पनम् । किं च "तस्य भासा सर्वमिदंविभाति" इति सूर्यादीनां स्वतः प्रकाशो नास्त्येव, घटवत, भगवत्प्रकाशेनैव प्रकाशवत्त्वमिति चकारार्थः, तस्मात् स्वतोऽभानेलक्षणया कर्मत्वे वा भगवत्परत्वे सिद्ध नान्या कल्पनम् ।
उक्त प्राप्त मत पर सिद्धान्त रूप से-"अनुकृतेस्तस्य" सूत्र प्रस्तुत करते हैं, अर्थात् यह वाक्य भगवान की अनुकृति का उल्लेख कर रहा है इसके वाक्य में सूर्य प्रादि के स्वतः प्रकाशता का निषेध है, सभी पदार्थ उस परमात्मा का ही अनुकरण करते हैं जैसे कि सूर्य की रश्मि और पुरुष की छाया । इसलिये यह वाक्य अनुकृति वाचक है इसमें भेद की कल्पना नहीं