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"पुरुषत्वे च मां धीराः सांख्ययोम विशारदाः। . आविस्तरां प्रपश्यंति सर्वशक्त्युपवृहितम् ॥" इतिभगवद्वाक्यात्, तस्माद् एव दहर इति सिद्धम् ।
ठीक है जीव में हम इस प्रकरण को उपपन्न नही मानते और न इस प्रकरण को जीव परक ही मानते हैं परन्तु यह प्रकर ग ब्रह्म में तो उपपन्न होता नहीं, सूक्ष्म पुंडरीक में भगवद् स्थिति संभव कैसे है ? उनकी तो व्यापकता का ही उल्लेख मिलता है "जितना यह प्राकाश है" इत्यादि वाक्य में जिस अल्पता का निर्देश है वह व्यापक परमात्मा संबंधी तो हो नहीं सकता इसलिये उक्त विरोध के परिहार के लिए हमें अणुस्वरूप जीव की स्थिति ही स्वीकारनी पड़ती है, यदि ऐसी शंका प्राप प्रस्तुत करते हैं तो आपने ठीक ही सोचा हमारे मत की ही बात कह दी, (हम भी जीव को मणु और ईश्वर को विभु मानते हैं, आप तो दोनों को अभिन्न मानते हैं) आपके संशय का समाधान तो हम प्रथम ही कर चुके हैं, उनकी व्यापकता आकाश की सी है, यह पापको नहीं भूलना चाहिए, सर्वभवन समर्थ (सब कुछ होने की सामथ्र्य वाले) ब्रह्म में विरुद्धता की शंका करना ही व्यर्थ है। जहाँ तक उनके शरीर की बात है वह भगवान के निम्न वाक्य से स्पष्ट हो जाती है--
"भक्ति शास्त्र प्रवीण धीर लोग मेरे पुरुषस्वरूप को विस्तृत रूप से • सर्वशक्तिसंपन्न देखते हैं। इससे सिद्ध होता है कि-भगबान ही दहर हैं।"
अनुकृतस्तस्य च ।।३।२२।।
दहर विरुद्धं वाक्यमाशंक्य परिहरति । “न तत्र सूर्यो भाति न चन्द्र तारक नेमाविद्य तो भान्तिकुतोऽयमग्निः, तमेवभांतमनुभातिसर्वम् तस्यभासा सर्वमिदंविभाति" इति कठवल्ल्यामन्यत्र च श्रूयते । यत्तच्छब्दानामेकार्थत्वं चावगतम् । अर्थाच्च संदेहः, “यस्मिन् घो" इत्यत्र सूर्यादीनां ब्रह्माधारत्वमुक्तम्, अस्मिश्चवाक्ये पूर्वार्द्ध तत्र तेषां भानं निषिद्धयते-“यत्र यत् . सर्वदा तिष्ठेत् तत्र चेत्तन्नभासते, क्व भासेताप्यपेक्षायां कर्मत्वेश्रुतिबाधनम् ।".