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प्रशस्तियाँ है इन प्रशस्तियों से; विधारकत्वकर्म उसी महापुरुष का निश्चित होता है--यह उसकी महिमा का ही द्योतक है, यह विधारकत्व उसमें वासनारूप से नहीं है, वासना. तो संसारी वस्तु है, उसका कोई महात्म्य नहीं है । विरुद्ध विशेषतायें उन एक परमात्मा मे संभव नहीं हैं, ऐसा नहीं कहे सकते। परमात्मा में विरुद्ध विशेषतायें उपलब्ध हैं 'पाकाश से भी विंशाल, यह दहर परिमित आकाश स्थूल अरण है" इत्यादि विरुद्ध विशेष तायें उन महामहिम भगवान् में ही उपलब्ध हैं । यशोदा आदि ने बहिस्थित विशाल जगत को उस प्रभु के मुख में देखा था। ऐसी महिमा जीव की नहीं हो सकती । इसलिए ब्रह्म ही दहर है। प्रसिद्ध श्च ॥३॥१७॥
प्राकाशशब्दवाच्यत्वप्रसिद्धिः । अपहतपाप्मत्वादि प्रसिद्धिः । किं बहुना प्रकरणोक्त सर्वधर्मप्रसिद्धिभंगवत्येव, न जीवे संभ वत्यतोऽपि भगवान्. एक दहरः । चकाराद्विधिमुखे माधिकरीसमाप्ति: सूचिता।
. परमात्मा की, प्राकाशशब्द वाच्यत्व रूप से प्रसिद्धि है तथा निष्णता आदि गुण भी उन्हीं के लिए प्रसिद्ध है। अधिक क्या प्रकरण में जितनी भी विशेषतायें हैं वे सभी भगवान के लिए प्रसिद्ध हैं । जीव में वे सब संभव नहीं हैं, इसलिए भगवान ही दहर है। चकार का प्रयोग विध्यर्थक और अधिकरण की समाप्ति का सूचक है।
अन्या निषेधामुखेन ,पुत्रविचारति
दूसरे प्रकार से निषेध करते हुए इस प्रकरण पर पुनः विचार करते हैं।
इतर, परमार्थात् स इति चैन्नासंभवात् ।।३।१८॥
- ननु ब्रह्मतादर्श, जीवो नेतादृश इति न क्वचिद् - सिद्धमस्ति । श्रुत्येकसंमधिगम्यत्वात् उभयरूपस्य ब्रह्मवादे । अतो यथा सर्वत्र ब्रह्मणोऽसाधारण