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१६६ वाच्यम्, विरोधित्वात् । न हि ज्ञाने जाते कर्तृत्वमस्तीति विप्लववादिनोंऽगी कुर्वन्ति ।
___ लगता है, सर्वज्ञ वेद व्यास ने भविष्य में जन्मने वाले मिथ्यावाद के निराकरण के लिए ही इस अधिकरण को प्रस्तुत किया है। जीवों के अज्ञान तथा ब्रह्म की सर्वज्ञता के आधार पर यही मानना होगा कि--गति और निष्पाप आदि शब्द ब्रह्म संबंधी ही हैं, जीव संबंधी नहीं। गति और शब्द के ब्रह्मपरक होने के चिह्न भी श्रतियों में उपलब्ध हैं “यथैवेह कर्मजितो लोकः" इत्यादि । यदि जीवात्मा, ब्रह्म से अभिन्न है तो निष्पापता मादि स्वाभाविक गुण उममें होंगे, फिर अज्ञान कहाँ से उसमें प्रासकेंगा क्या वह स्वयं अपने लिए प्रज्ञान की कल्पना करता है, यदि करता है तो मानो वह अपने घर में ही कुल्हाड़ी मारता है अर्थात् स्वयं अपना अहित करता है। शान के सामथ्र्य से वह अज्ञान की कल्पना करता है, अर्थात् जानबूझकर वह अज्ञान को प्रोढ़ता है, यह कथन तो अनर्मल है, ज्ञान और प्रज्ञान दोनों विरोधी वस्तु हैं, जानबूझ कर अज्ञानी बनना तो मक्कारी है, उसे अज्ञान नहीं कह सकते । ज्ञान हो जाने पर कुछ भी कर्त्तव्य शेष नहीं रह जाता, ऐसा तो विप्लववादी ही मानने हैं, अर्थात् जिन्हें हर. जमह कुछ अडंगा लमाना रहता वे ही ऐसा पुछल्ला लगाते हैं ।
विरुद्धा च कल्पना "अहं ब्रह्मास्मि" इति । अतएव सर्वभावच तेः । तज्ज्ञानं च तस्य सार्वज्ञे लिंगम् । तस्यहि स गुणों भगवद्वाच्यानामन्यतरः, स चेजीवे समायाति तस्कृपया, तस्येवास्यापि महात्म्यं भवति । तस्माल्लिगादपि गतिशब्दो ब्रह्मविषयो । चकारात् "तमेव विदित्वा प्रतिमृत्युमेति" मान्यः पंथा विद्यतेऽयनाय" इति श्रुत्या ब्रह्मत्वेन ज्ञानं नात्मनोमोक्षाय । ब्रह्मण एव तु ज्ञानमात्मत्वेनापि । तस्माद् दहरः परमात्मा ।
"अहं ब्रह्मास्मि" यह कल्पना शास्त्र विरुद्ध है, बृहदारण्यक में "तयों देवानां प्रत्युबुद्धयत् तथर्षीणां" इत्यादि से अनेक जीवों को बतलाते हुए "तदिदमप्येतहि य एवं वेदाहं ब्रह्मास्मि इति स इदं सर्व भवति" इत्यादि ज्ञानानंतरभाव दिखलाया गया है, यदि जीव और ब्रह्म के अभेद की बात कही गई होती तो, "इदं सर्व भवति" में कहीं मई सर्वभाव की बात .