________________
१६३
वाक्यांश से महाभूतों की नित्यता का प्रतिपादन करके "एष प्रात्मा" इत्यादि से उसी के ब्रह्मत्व का प्रतिपादन किया गया है ।" "य इह" इत्यादि से उसके ज्ञान की प्रशंसा की गई है तथा स्वात्मज्ञानी की कामसिद्धि बतलाई गई है । इस प्रसंग में जो भी विरुद्ध विशेषतायें प्रतीत होती हैं, वह भी, नित्य प्रति आवागमन की जो निद्रावस्था की स्थिति बतलाई गई वह जीव की स्वप्न माया मनोरथ के अनुसार है, ऐसा मानने पर समाप्त हो जाती हैं। क्यों कि—जीव से अतिरिक्त ब्रह्म कोई दूसरी वस्तु तो है नहीं । ऐसे ही लोकाधारत्व की बात भी है, यह शक्ति ब्रह्मचर्यं साधन से जीव में संभव है । योग और ब्रह्मचर्यं से ऊर्ध्वगति हो जाने से अमृतत्व प्राप्ति हो जाती है । इसलिए जीव ही दहर है, यही मानना समीचीन है ।
इत्येवं प्राप्ते, उच्यते-- दहरः परमात्मा, न जीवः । कुतः ? उत्तरेभ्यः, उत्तरत्रवक्ष्याणेभ्यो हेतुभ्यः । तेषामपि साध्यत्वादेवमुक्तम् ! जीवो नाम भगवदंशो, न भगवानेवेत्यग्रे वक्ष्यते " श्रधिकं तु भेद निर्देशादिति" तस्मादिदं प्रकरणं न जीव ब्रह्मविद्यापरम्, किन्तु ब्रह्मवाक्यमेवेति ।
उक्त मत पर कहते हैं कि - दहर परमात्मा है, जीव नहीं क्यों किआगे के प्रसंग में जो उसमें हेतु प्रस्तुत किये गए हैं वे सब परमात्मा की साध्यता की ही पुष्टि करते हैं । जीव भगवान का अंश है, भगवान नहीं है ऐसा " अधिकं तु भेद निर्देशात्" में स्वयं सूत्रकार निर्णय करते हैं । इसलिये यह प्रकरण जीव ब्रह्मवाद का पोषक नहीं है अपितु ब्रह्म संबंधी ही है ।
गतिशब्दाभ्यां तथाहि दृष्टम् लिंगंच | १|३|१५|
उत्तर हेतूनांमध्ये
हेतुद्वयमाह, गतिशब्दाभ्याम्
गतिब्रह्मलोकगमनं “एवमेवेमाः सर्वाः प्रजाः, अहहरहर्गच्छन्त्य एवं ब्रह्मलोकं न विन्दति" इति एष श्रात्माऽपहतपाप्मा सत्यकामः सत्यसंकल्पः" इति केवल भगवद्वाचका: शब्दाः, ब्रह्मलोक शब्दश्च । ननूक्तं जीवयैस्वेतेशब्दा गतिश्वमनोरथादिकल्पितानाम् इति ? तन्निराकरणायाह -- " तथाहि " तथैव गतिशब्दी भगवत्येव युक्ती, प्रनृतेनापिधानं हि तेषां विशेषणं, प्रज्ञानावेष्टितत्वमित्यर्थः,