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चतुर्थमात्रोपासनया “परंपुरुष ममिध्यायीत् । “स तेजसि परे संपन्नो यथा पादोरस्त्वचेत्या दना परात् परं पुरिशयं पुरुषमीक्षत्" इति । तत्र संशयः, पर पुरुषः परमात्मा ध्यान विषय, आहोस्वित् विराट् पुरुषो, ब्रह्मा वेति ? तत्रामुख्य प्रवाह पतित्वाद् ब्रह्मलोकं गतस्य तदीक्षमेव च फलं श्र यते । न हि परं पुरुषस्य ब्रह्मत्वे तज्ज्ञानमेव फलं भवति । तस्माद् विराट् ब्रह्म वा अभिध्यान विषयः। ___ प्रश्नोपनिषद के पंचम प्रश्न में- “सत्यकाम ! यह पर और अपर ब्रह्म है जो ओंकार है, विद्वान लोग इसी एक को जानने का प्रयास करते हैं" इत्यादि से-एक दो तीन मात्रा की उपासना से क्रमशः ऋग् यजु सामवेद और मनुष्यलोक; चंद्रलोक और सूर्यलोक की प्राप्ति और पुनरागम का निरूपण करके चतुर्थ मात्रा की उपासना में "परं पुरुष का ध्यान करना चाहिए" उस परं पुरुष के तेज से संपन्न होकर परात पर पुरुष को हृदय गुहा में देखते हैं" इत्यादि वर्णन किया गया। यहां संशय होता है कि, परं पुरुष के रूप में परमात्मा के ध्यान की बात कही गई है अथवा, विराट् पुरुष या ब्रह्मा के ध्यान की बात ? उक्त प्रसंग से ब्रह्म के विषय का तो प्रवाह चल नहीं रहा, तथा ब्रह्मलोक गमन और उसके दर्शन का फल वर्णन किया गया है । परं पुरुष के ब्रह्मत्व रूप से तत्वज्ञान होने का यह फल तो है नहीं। इससे तो यही समझ में आता है कि, विराट या ब्रह्मा ही को इसमें ध्येय बतलाया गया है।
इत्येवं प्राप्ते उच्यते-सः अभिध्यान विषयः पर पुरुषः परमात्मैव । कुतः ? ईक्षति कर्म व्यपदेशात् जीवधनात् केवल जीवाधार भूताद् ब्रह्मलोकात् पर रूप पुरुष दर्शनमीक्षतिः, तस्या कर्मत्वेन व्यपदेशदाभयोः कर्मणोरेकत्वम परं त्रिमात्रपर्यन्तं निरूप्य परं ह्य ग्रे निरूपयति तथैव च श्लोके "तिस्रो मात्रा" इत्यादि ।
उक्त मत पर सिद्धान्त बतलाते हैं कि, वह परं पुरुष परमात्मा ही ध्येय रूप से उल्लेख्व हैं, उन्हीं के दर्शन की बात कही गई है । जीवाधार भूत ब्रह्मलोक से ऊपर पर रूप दर्शन को ही ईक्षण कहा गया है, उन परमात्मा का वहाँ कर्मत्व रूप से उल्लेख किया गया है, इसलिए ध्यान और ईक्षण दोनों कर्मों को एक कर दिया गया है, परमात्मा के अपर स्वरूप का त्रिमात्रा तक वर्णन करके आगे उसी में "तिस्रो मात्रा' इत्यादि श्लोक में उनके पर रूप का वर्णन किया गया है ।