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इत्येवं प्राप्ते उच्यते-- अक्षरं परमात्मैव, कुतः ? अंबराद्धृतेः । श्रुति व्याख्याय सिद्धम् हेतुमाह-प्रत्रक प्रश्न उत्तरं चैकम् । आकाशस्यावान्तरत्वमेव तेनाम्बरान्तानां पृथिव्यादीनां विचारकः परमात्मैव । द्य ुम्वाद्यायतन सिद्धो Esa हेतुः । " नतदश्नोति कश्चन्" इति मुख्यतया परिग्रहीतो भवति । अन्यथा मूर्ध्ना विपतनं च भवेत् न ह्यन्यः सर्वाधारो भवितुमर्हति । परोक्षेण ब्रह्मकथनाऽर्यमक्षरपदमन्यनिराकरणार्थं तद्धर्मोपदेशश्च तस्मादक्षरं
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परमात्मैव ।
उक्त मत पर सिद्धान्त कहते हैं कि- प्रक्षर परमात्मा ही है, क्योंकि, अंबर धारण की बात कही गई है, वह उन्हीं में संभव है । यहाँ तात्पर्य सिद्धि की बात है, स्वरूप सिद्धि की बात नहीं है, श्रुति में श्राधारकत्व रूप विशेषता दिखलाने के लिए अंबर के श्रोत प्रोत का उल्लेख किया गया है, इस प्रसंग में इस तात्पर्य से ही प्रश्नोत्तर दोनों किये गये हैं । प्रकाश की बात तो एक पूछने का ढंग मात्र है, पृथिवी से लेकर प्राकाश तक सभी के विधारक परमात्मा ही हैं, जो विशेषतायें द्य भू आदि के विधारण के संबंध में कही गईं और उनको भगवान में संगति बतलाई गई, वैसे ही यहाँ भी विधारक रूप परमात्मा में सब धर्मों की संगति हो जावेगी । इम प्रसंग में तदश्नोति कश्चन्” यह विशेष महत्वपूर्ण वाक्य है जिसमें परमात्मा की ही भोग्य शक्ति पर बल दिया गया है, उसे न मानने पर गार्गी के शिर कटकर गिर जाने की बात कही गई इससे सिद्ध किया गया कि परमात्मा के प्रतिरिक्त कोई और सर्वाधार नहीं हो सकता । ब्रह्म तत्त्व को इसमें परोक्ष रूप से अक्षर नाम से उल्लेख किया ही है इसको निश्चित करने के लिए ब्राह्म धर्मों का इससे निश्चित होता है अक्षर परमात्मा ही है ।
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गया है और यह ब्रह्म उल्लेख किया गया है।
सा च प्रशासनात् |१|३|११॥
ननु क्वचिद् वाक्ये विधारणं ब्रह्मधर्मत्वेनाश्रितमित्यन्यत्रापि न तथाश्रयितुं शक्यते । नियामकाभावादित्यत आह-सा च विधृतिरत्रापि वाक्ये ब्रह्म धर्म एव, कुतः ? प्रशासनात् एतस्य वाऽक्षरस्य प्रशासने गागि द्यावा पृथिवी विधृते तिष्ठत" इति प्रशासनेन विधारणमन्यधर्मोभवितुं नार्हति प्रतिज्ञा शक्त भगवद्धत्वात् तस्मादक्षरं ब्रह्मव ।