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प्रादेशमात्र में स्थित होने की जो बात कही गई है, वह स्थूल दृष्टि से सामान्य जीवों की स्थिति की परिचायक है, हिरण्यगर्भ भी तो जीवों का समष्टि रूप मुख्य स्वरूप है । वह हिरण्यगर्भ विराटपुरुषं का अभिमानी देवता है इसलिए संसार के पृथिवी प्रादि अवयवों को उमका अवयव कहा गया है। वे वेदगर्भ हैं, इसलिए उनकी अग्नि त्र्यात्मकता भी संगत हो जाती है । इससे ज्ञात होता है कि ये वाक्यं हिरण्यगर्भोपासना परक ही है, भगवदुपासना परफ नहीं है।
एवं प्राप्ते उच्यते-वैश्वानरः परमात्मैव, कुतः ? साधारण शब्द विशेषात्, वे पूर्वपक्षे साधारणशब्दा हिरण्यगर्भ परतया ततोऽपि विशेषीऽस्ति येन भगवानेव वैश्वानरो भवति । प्रादेशामात्रस्यब ध मूर्खत्वादि धी । न हि विरुद्ध धर्माश्रयत्वं भगवद्ध्यतिरिक्त संभवति । सर्वभवनसामथ्यो भावात् । साधारणाद्धर्मान् शब्द एव विशेष इति वा । विशेषादित्येव वक्तव्ये साधारणशब्दशब्दो प्रादेशमात्रस्यैव वैश्वानरशब्दवाच्यत्वं, यु मूर्द्धत्वादिक तस्य वेति समासेन द्योतयतः, अभ्यथा विरोधाभावात् । यदपि लोकात्मक स्थूलरूपं तदपि भगवत एव, न हिरण्यगर्भस्थति, पुरुषत्वात्तस्य । विश्वस्य जडस्यनरस्यजीवस्य च भगवदंशत्वेन देवतात्वाद् देवताद्वन्द्वे चेति विश्वानरो तो निवासी यस्येति, तस्य निवास इत्याए । तेन परमेश्वर एवं चश्वानरो भवति नान्यः। भगवदंशत्वादन्यचोपचारात् प्रयोगः । तस्माद वैश्वानरः परमात्मा।
उक्त मत पर कहते हैं कि, वैश्वानर परमात्मा का ही नाम है, उक्त प्रसंग में साधारण शब्दों के अतिरिक्त विशेष शब्द भी हैं जिससे परमात्मा की बात पुष्ट होती है । साधारण शब्दों के आधार पर हिरण्यगर्भ का वर्णन प्रतीत होता है, पर कुछ ऐसे विशेष शब्द भी हैं जिनसे यह निश्चय होता है 'कि वैश्वानर भगवान ही हो सकते हैं। प्रादेशमात्र अल्प स्थान में स्थित की ध मूर्धा आदि व्यापक विशेषतायें, सिवा परमात्मा के और किसमें संभव हो सकती हैं ? ये विलक्षण विशेषताय परमात्मा के प्रतिरिक्त किसी और में संभव नहीं हैं । उनमें सब कुछ होने का सामर्थ्य है । वैश्वानर शब्द ही व्यापक अर्थ की प्रतीति करा रहा है । यद्यपि लोकात्मक स्थूल रूप का वर्णन उक्त प्रसंग में है, जो कि व्यापक निराकार परमात्मा के लिए मानने में हिचक