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जैमिनिः । श्राकाशवद् व्यापकं सर्वतः पाणिपादान्तं ब्रह्म अत एव साकारत्व मनंतमूत्तित्वब्रह्मणः स्वेच्छयापरेच्छया स्वभायतश्च विभक्तमिव । त्रयोsपि नियत परिमाणाः । प्रनियत परिमाणास्तु आकाशवत् परिच्छेदनिरूप्याः । तद् बृद्धिह्रासाभ्यां तथा भवंति । स्मृतावप्युक्त - " विष्णोस्तु त्रीणि रूपाणि पुरुषाख्यान्यथो विदुः, प्रथमं महतः स्रष्ट्रः द्वितीयं स्त्रंडसंस्थितम्, तृतीयं सर्व भूतस्थं तानिज्ञात्वा विमुच्यते" इति ।
सर्व प्रथम उभय बल विचारक जैमिनि का मत प्रस्तुत करते हैं । व्यापक परमात्मा की प्रादेशमात्र स्वरूप स्थिति, साक्षात हो या व्यतिरेक से, आचार्य. जैमिनि उसमें कोई विरोध नहीं समझते, जैसे कि, प्रकाश की तरह व्यापक, सब जगह पहुँचने वाले ब्रह्म की साकारता और अनंत स्वरूपता, ब्रह्म की अपनी इच्छा, दूसरे की इच्छा और स्वभावतः होती हैं। तीनों परिस्थितियों में उनका परिमाण नियत रहता है । उनका अनियत परिमाण तो श्राकाश की तरह परिच्छेद निरूप्य है अर्थात् वृद्धि ह्रास से अनेक रूप का होता है । जैसा कि स्मृति का वचन भी है - " उस परम पुरुष विष्णु के तीन रूप हैं, पहिला महत् सृष्टि में, दूसरा त्वं पद वाच्य जीव में तथा तीसरा समस्त भूतों में स्थित है, इनको जानकर मुक्ति हो जाती है ।"
भूतेषु पंचधा । उदरेंऽगुष्ठमात्रः, हृदये प्रादेशो मूर्द्धनि च मनसीन्द्रियेषु चारणुः, चित्ते व्यापकः । एकस्याप्युपक्रमे सर्वेषु तथात्ववादी विभूतिरभेदाय, तस्माद् वैश्वानरस्य पुरुषत्वात् सच्चिदानंदरूपेणैव प्रादेशमात्रत्वं न विरुद्ध्यते, अतः साकार ब्रह्मवाद जैमिनेः सिद्धान्तः ।
भूतों मैं उस ब्रह्म की पांच रूपों में स्थिति है, उदर में हृदय प्रादेशमात्र, में मूर्द्धा, मन और इन्द्रियों में प्रणु मात्र तथा चित्त में व्यापक | केवल एक प्रादेश मात्र के वर्णन करने में उसी प्रकार सभी में उनकी विभूति प्रभिन्न रूप से मान लेनी चाहिए। इस प्रकार वैश्वानर के पुरुष होने से, उस सच्चिदानंद रूप से व्याप्त परमात्मा की प्रादेश मात्र स्थिति म 'नने में कोई विरुद्धता नहीं है, ऐसा साकार ब्रह्मवाद का जैमिनि का सिद्धान्त है ।
अभिव्यक्त रित्याश्मरथ्यः | १|२|२६||
निराकारमेव ब्रह्म मायाजवनिकाच्छन्नं तदपगमेन पुरुषाकारेणाधिदैविक