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जो बात कही, वह भी निस्तथ्य है, क्योंकि, कारण में कार्य निहित रहता है । सेतु संबंधी जो शंका की उसका भाव यह है कि परमात्म तत्त्व के ज्ञान से अमृत प्राप्ति होती है, सेतु पद इसी रूप में आधार वाची है । अभेद वाद में जैसे-"ब्रह्म विद् ब्रह्म को प्राप्त करता है" ऐसा वाक्य हैं उसी प्रकार यह सेतु पद भी ज्ञान वाची है । इस वाक्य का अर्थ अबाधित है, लक्ष्य, परमात्मा की सर्व व्यापकता का बोधक है। इस प्रकार निश्चित होता है कि द्य भू आदि के आयतन ब्रह्म ही हैं।
मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात् ।१॥३॥२॥
ननु चोक्तं मर्व विज्ञानस्योपक्रान्तत्वादन्यवाग्विमोको विरुद्ध इति । नेव दोषः । मुक्तोपसृप्यव्यपदेशात् । मुक्तानांजीवन्मुक्तानां शरीराद्यध्यासरहितानां अवान्तरप्रकरणशरधनुन्यायेन ब्रह्मत्वेन ज्ञानं पृथक्त्वेन वा जीवं लक्ष्ये योजयितुं तदुपसृप्यत' व्यप दिश्यते । तेन शरीराधध्यास विशिष्टं न ब्रह्मणि योजनीयम् इति ।
जो यह कहा कि, सर्व विज्ञान के नियम से अन्य वाक्यों की संगति नहीं बैठेगी, सो ऐसा दोष नहीं होगा, 'शरीराध्यास से रहित जीवन्मुक्त जीवों को, अन्य प्रकरण में शरधनुन्याय से ब्रह्मत्व रूप से अभिन्न अथवा भिन्न कहा गया गया है; जीव को लक्ष्य की ओर उपसरण करने का पदेश किया गया है। [अर्थात् जीवों की भगवन्निकट गमन योग्यता का उल्लेख किया गया है] जैसा . कि उल्लेख है-"धनुगृहीत्वोपनिषदंमहास्त्रं. शरंह्य पासानि शतं सन्यधीत, आयाम्पतद्भावगतेन चेतस्य लक्ष्यं तदेवाक्षरं सौम्य विद्धि ।" अर्थात् प्रौपनिषद् ब्रह्मविद्या रूपी धनुष पर उपासना रूपी तीर को चढ़ाकर जो लक्ष्य वेध करता है, मैं उसकी भावना के अनुसार उसके चित्त में पा जाता हूँ, हे सौम्य ! उस अक्षर को ही लक्ष्य जानो । "प्रणवो धनुः शरोह्यात्या ब्रह्म तल्लक्ष्यमुच्यते, अप्रमत्तेन बोद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्"अर्थात्-प्रणव धनु, जीवात्मा तीर और ब्रह्म लक्ष्य है, तन्मय होकर सावधानी के साथ, लक्ष्य का विध करना चाहिए । “लक्ष्यं सर्वगतं चैव शरो मे सर्वतोमुखः वेद्धा सर्व गतश्चैतद् विडं लक्ष्यं न संशयः ।" अर्थात् मुझ सर्वव्यापक की अोर सर्वतोमुख 'होकर लक्ष्य का संधान करने वाला सर्वगत. चित्त निश्चित ही लक्ष्य का वेध