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अत्र संशयः, द्य वाद्यायतनं ब्रह्म, आहोस्वित् पदार्थान्तरम् इति । अर्थान्तरमेव च भवितुमर्हति । द्यबादीनां सूत्रमणिगणाइवप्रोतानां भारवाहकत्वान्न तद्वाहकः परमात्मा। अन्यवाग्विमोकश्चासंगतः । एक विज्ञानेन सर्व विज्ञानस्य पृष्टत्वात् कथमन्यविमोकः ? सुतेश्च गति साधनः तस्माद फलत्वमपि । आत्मलाभान्न परं विद्यत इति विरोधश्च । अतो न ब्रह्मविद्या परमेतद् वाक्यं, किन्तु स्मृतिमूल भविष्यति ।
यहाँ यह संशय होता है कि, धु भू आदि का प्रायतन ब्रह्म है, या कोई अन्य पदार्थ ? कोई दूसरा ही हो सकता है, क्योंकि, शु भू आदि सूत्र में पिरोये हुए मनकों के समान भार रूप हैं, उनको वहन करने वाले परमात्मा नहीं हो ससते । इस वाक्य से दूसरे वाक्य भी असंगत होंगे। और फिर एक के ज्ञान से सबका ज्ञान होता है, इस नियम के अनुसार दूसरों का अर्थ संगत भी कैसे होगा? आने जाने के साधन को ही सेतु (पुल) कहते हैं, इसलिए यहाँ परमात्मा परक अर्थ करना निष्फल भी है, अर्थात् परमात्मा को इतना छोटा नहीं बतला सकते । ऐसा मानने से कुछ प्रात्मलाभ की भी तो संभावन नहीं है जिससे मोक्ष हो सके, अपितु विपरीत फल की ही संभावना है, अर्थात् परमात्मा को सेतु मान कर उस पर पैर रख कर चलने से नर्क ही होगा, मोक्ष कैसे संभव है । इसलिए यह वाक्य ब्रह्मविद्या परक नहीं समझ में आता अपितु सांख्य स्मृति सम्मत प्रकृति परक प्रतीत होता है।
इत्येवं प्राप्ते उच्यते-द्य भ्वाद्यायतनं ब्रह्मव, द्यौर्भूश्चादिर्येषां ते धु भ्वादयः, तेषामायतनं, यस्मिन् द्योरिति वाक्योक्ताना साधकं वदन् प्रथम परिहारमाह-स्वशब्दात्, प्रात्मशब्दो व्याख्यातः स्वशब्देन अत्र न जीवस्यात्मत्वेनोपासनार्थमात्मपदं, किन्तु पूर्वोक्तानामात्कभूतं तेन न भारकृतो दोषः कारणे हि कार्यमोतं भवति । सेतुत्वं न युज्यते तत्ज्ञानेनाऽमृतत्व प्राप्तेः । अभेदेऽपि "ब्रह्मविदाप्नोति परम्" इतिवदर्थः । तस्माद बाधितार्थत्वाल्लक्ष्यस्य सर्वगतत्व व्युत्पादकत्वाद् धुम्वाद्यायतनं ब्रह्मव ।
उक्त मत पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि, द्य भू मादि के आयतन परमात्मा ही हैं, "यस्मिन् द्यो" इत्यादि साधक को बतलाने के लिए पहिले परिहार करते हैं कि, उक्त वाक्य में ब्रह्म वाची प्रात्मा तो हो नहीं सकता, जीवात्मा की उपासना की तो चर्चा है नहीं । पूवोक्त द्य भू प्रादि के भार की