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यदि कहो कि, शास्त्र को पुष्ट करने के लिए कोई कोई वेद सम्मत युक्ति प्रस्तुत की जा सकती है, सो उस पर कहते हैं कि, उक्त विषय में तो विरोध की शंका ही नहीं करनी चाहिए क्योंकि, परमात्मा का तो विलक्षण स्वभाव ही है । युक्ति तो सामान्य विषयों में चल सकती है असामान्य में नहीं । लोह ara (चुम्बक) मणि के निकट जैसे लोह के पदार्थ घूमते हैं, क्या गर्भाधान करने में मयूर भी नृत्य करता है ? दोनों विभिन्न बातें हैं उनमें एक ही युक्ति कैसे लगाई जा सकती है । विभिन्न स्वभावों को देखकर सब जगह, कोई भी स्वभाव के विपरीत कल्पना नहीं कर सकता । उक्त प्रसंग के अंत में "सुषिरं सूक्ष्मं गस्मिन् सर्वं प्रतिष्ठितं" इत्यादि से सूक्ष्मता और सर्व प्रतिष्ठा की बात स्पष्ट रूप से कही गई है ।
यशोदास्तनन्धयस्य च भगवतो मुखारविन्दे विश्वमेव दृष्ट्वा स्वप्नमायाविद्या निराकरणाय सिद्धान्तमाह - " श्रतो अमुष्येव ममार्भकस्य चः कश्चिनौत्पत्तिक आत्मयोगः" इति । उलूखल बंधने चायमर्थो निर्णीतः तस्मादानंदांशस्येवायं धर्मो यत्र स्वाभिव्यक्तिस्तत्र विरुद्ध सर्व धर्माश्रयत्वम् इति चकारार्थः । तस्मात् प्रादेश मात्रो व्यापक इति वैश्वानरो भगवान् एवेति सिद्धम् ।
यशोदा, अपने दुधमुहें बालक भगवान कृष्ण के मुख में विश्व को देखकर - स्वप्नमाया श्रविद्या के निराकरण के लिए सिद्धान्त वाक्य बोलती हैं" निश्चित ही मेरे इस बालक से ही समस्त जगत की सृष्टि हुई है ।" उलूखन बंधन के प्रसंग में भी जब कृष्ण को बांधने में हैरान हो गईं उस समय भी ऐसा ही निर्णय किया । इससे निश्चित होता है कि परमात्मा के श्रानंदांश की ये सब लीलायें हैं जहाँ परमात्मा की अभिव्यक्ति होती है वहीं सारे विरुद्ध विलक्षण विशेषतायें होती हैं। इसलिए व्यापक वैश्वानर भगवान ही प्रदेश मात्र हैं ऐसा निश्चित होसा है ।
प्रथम अध्याय, द्वितीय पाद समाप्त