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कर लेता है इसमें संदेह नहीं है ।" इसलिए, शरीराध्यास विशिष्ट जीव को ब्रह्म में नहीं लगना चाहिए, शरीध्यास रहित को ही लगना चाहिए ।
किं च वाग्विमोक एव न वस्तु विभोकः ? वस्तुनो ब्रह्मत्वात् । बाचारभंगमात्रत्वाद् विकारस्य, अतो न सर्व विज्ञान बाबः । अतो बाधकाभावादिद ब्रह्म वाक्यमेव । ये तु श्रृ तेरन्यथार्थत्वं कल्पित मतानुसारेण न यन्ति ते पूर्वोत्तर स्पष्ट श्रुति विरुद्धार्थवादिन उपेक्ष्याः ।
ये तो वाक्य की संगति की बात हुई, वस्तु की तो हुई नहीं ? सो वस्तु की संगति का प्रश्न ही नहीं उठता, सारी वस्तुएं, ब्रह्म स्वरूप ही तो हैं । विकृत जागतिक पदार्थों में नाम मात्र का ही तो भेद है, हैं। सब सच्चिदा नंद स्वरूप ही, इसलिए सर्वविज्ञान के नियम में बाधा नहीं होगी । बाधा न होने से स्पष्ट है कि, ये वाक्य ब्र परक ही है । जो लोग अपनी कल्पनानुसार श्रति का इससे विपरीत अर्थ करते हैं, पूर्वोत्तर स्पष्ट श्रुति से विरुद्ध अर्थ करने वाले उन लोगों की उपेक्षा कर देनी चाहिए ।
नानुमानमतच्छब्दात् | १|३|३||
ननु जड धर्मा, जड दृष्टान्ताः प्रकरणे बहवः संति "श्ररा इव ब्रह्म पुरे मनोमयः " 'इष्यादि । तस्मात् प्रकृति पुरुष निरूपक सांख्यानुमापकमेवैत्प्रकररण वस्तु । निर्णीयमपि अक्षराधिकरणे जड धर्मात् पुनरुज्जीवनम् तस्माद् द्य म्वाद्यायतनं प्रकृतिमेव भवितुमर्हति ।
उक्त प्रकरण में "श्रराइव ब्रह्म पुरे मनोमयः" इत्यादि, जड धर्म परक जड दृष्टान्त बहुत हैं इससे तो यही समझ में आता है कि, प्रकृति पुरुष का निरूपण करने वाले सांख्य का श्रानुमानिक तत्त्व ही इस प्रकरण का प्रतिपाद्य हो सकता है। अक्षराधिकरण में जड धर्म से पुनरुज्जीवन की बात निर्णीत हो चुकी है इसलिए द्य भू अदि की प्रायतन प्रकृति ही हो सकती है ।
इति चेन्न अनुमानं तन्मतानुमापकं न भवति । कोऽपि शब्दो निःसंदिग्ध - स्तम्मतख्यापको नास्ति बह्मवाद ख्यापकास्तु बहवः सन्त्यात्मसर्वज्ञानंदरूपादि शब्दाः | अतः संदिग्धा: जड धर्मत्वेन प्रमीयमाना श्रपि ब्रह्म धर्माः, एवेति