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विरुद्धता की प्रतीति होती है, जान लेने के बाद कोई विरुद्धता नहीं है । इसमें श्रुति प्रमाणों का ही आश्रय लेना उचित है, युक्ति की कोई आवश्यकता नहीं है, शब्द बल विचार ही मुख्य होता है । यदि अन्यथा कल्पना का त्याग कर दिया जाय तो प्रतीत होने वाले विरोध का आभाष भी नहीं होगा। वैश्वानर का पुरुषत्व, पुरुषविधत्व और पुरुष में अन्तःप्रतिष्ठितत्व का स्पष्ट उल्लेख वाजसनेपि संहिता में है, युक्ति से उसके विधत्व और प्रतिष्ठित्व को सिद्ध नहीं किया जा सकता। इसलिए युक्ति की बात करने वाले संब ऋषि भ्रांत हैं जो कि अन्यथा कल्पना करते हैं, अब निर्धान्त अपने मत को बतलाते हैं। ___एतं वंश्वानरमस्मिन्मूर्द्धचिबुकान्तराले जाबालाः समामनन्ति“एषोऽनन्तोऽव्यक्त प्रात्मा योऽविमुक्त प्रतिष्ठत इति, सोऽविमुक्तः कस्मिन् प्रतिष्ठत ?" इत्यादिना "म्बोः प्राणस्य च यः संधिः स एष धौलॊकस्य परस्य च संधिर्भवतीति ।" न हि अनंतःसंकुचितस्थाने भवति, विशेषणवैयोपपत्तः। युक्तिगम्यात्व ब्रह्मविद्यव । अविरोधेऽपि वक्ष्यति । श्रुतेस्तु शममूलत्वादिति ।
उक्त वैश्वानर को इस शरीर में ही मूर्द्धा से लेकर चिबुक तक जाबालोपनिषद् में व्याप्त बतलाया गया है-"यह अनंत अव्यक्त आत्मा अविमुक्त जीवात्मा में प्रतिष्ठित है" वह अविमुक्त किसमें प्रतिष्ठित है ?" इत्यादि । "भ्रू और प्राण की जो संधि है, वही द्यौ और परलोक की संधि है।" इत्यादि । अनंत वस्तु संकुचित स्थान में प्राबद्ध नहीं हो सकती, ऐसा मानने से, श्रुतियों में जो उसकी विशेषतायें बतलाई गई हैं वो सब व्यर्थ ही सिद्ध होंगी । ब्रह्म के संबंत्र में युक्ति से समाधान नहीं होता, माया के विषय में ही युक्ति चल. सकती है । अविरोध में भी युक्ति चल सकती है किन्तु जहाँ विरुद्ध बातें सामने प्रावें वहां तो शास्त्र ही प्रमाण होता है, वेद शब्द मूलक हैं, शब्द का जो मुख्य अर्थ होगा वही मानना पड़ेगा।
ननु तथापि काचिद् वेदानुसारिणी युक्तिर्वक्तव्या, शास्त्रसाफल्यायेति चेत् उच्यते-विरोध एव नाशंकनीयो वस्तुस्वभावात् । अयस्कान्त सन्निधौ लोहपरिभ्रमणे या युक्तिर्गर्भस्यौदर्यादाहै. रेतसो मयूरत्वादि भावे । न हि सर्वत्र स्वभाव दर्शनाभ्यामन्योपपत्तिः, कैश्चिदपि शक्यते वक्तम् । तस्यान्ते सुषिरमित्यादिना श्रु तिरेवमेवाह ।