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रूप से स्वीकृत है। सूत्रकार इस बात को विशेष रूप से कहने के लिए ही "रूपो न्यासाच्च" एक विशेष सूत्र प्रस्तुत कर रहे हैं। सूत्र में चकार का प्रयोग कर बतलाते हैं कि इस 'ब्रह्म के विश्वकाय" के संबंध में सारे ही वेदांत वाक्य एक मत हैं इस पर श्रुतियों का पारस्परिक विरोध भी नहीं हैं। अक्षर शब्द से श्रुतियों में, ब्रह्म तत्त्व का विवेचन नहीं किया गया है अपितु इस ब्रह्म विद्या का ही विवेचन है । ८-अधिकरण वैश्वानरः साधारणशब्दविशेषात् शरार४॥ __ अधिकरणत्रयेणभोगमुपपाद्य, पूर्वाधिकरणे अदृश्यत्वादि गुणानुक्त वा प्रसंगात् रूपमुपन्यस्तम् । अधुना साकारब्रह्मतामुपपादयितुं इदमधिकरणमारभते।
इस पाद में प्रारंभिक तीन अधिकरणों से भोग का उत्पादन करके, पूर्व . के अधिकरण में अदृश्यता आदि गुणों का विवेचन करके प्रसंगतः रूप का भी विवेचन कर दिया । अब ब्रह्म की साकारता का विवेचन करने के लिए, इस अधिकरण को प्रस्तुत कर रहे हैं।
"को न.आत्मा कि ब्रह्म ? प्रात्मानमेवेमं वैश्वानरं संप्रत्यध्येषितमेव नो ब्रूहि" इति चोपक्रम्य · द्य सूर्यवाग्वाकाशवारिपृथिवीनां सुतेजस्त्वादि गुण योगमेककोपासननिन्दया च मूर्द्धादिभावमुपदिश्याऽम्नायते “यस्त्वेतमेव प्रादेशमात्रमभिविमानमात्मानं वैश्वानरमुपास्ते स सर्वेषु लोकेषु सर्वेषु भूतेषु, सर्वेष्वात्मस्वन्नमत्ति, तस्य ह वा एतम्यात्मनो वैश्वानरस्य मूद्धव सुतेज"श्चक्षुविश्वरूपः प्राणः पृथग्वत्मिा संदेहो बहुलो बस्तिरेव रयिः पृथिव्येक पादावुदर एव वेदिर्लोमा नि बहिहदयं गार्हपत्यो मनोऽन्वाहार्यपचनमास्य माहवनीयः' इत्यादि ।
छांदोग्य में--"हमारा आत्मा कोन है , और ब्रह्म का स्वरूप क्या है ?" श्राप इसा वैश्वानर प्रात्मा के ज्ञाता है, उसी का हमारे लिए उपदेश करें" ऐसा उपक्रम करके छ, सूर्य, वायु, आकाश, जल पृथिवी प्रादि के, सुतेजता
आदि गुणों के आधार पर, अलग अलग उपासना की गहणा करके उस विराट के मूर्दा प्रादि भाव का उपदेश देकर आगे कहते हैं