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"जो इस प्रादेश मात्र व्यापी प्रात्मा वैश्वानर की उपासना करते हैंवै सब लोक, सब भूत और सब मात्माओं में अन्न खाते हैं, इस वैश्वानर मात्मा के, सुतेज मूर्धा और चक्षु हैं, विश्वव्यापी प्राण हैं, इसके एक एक अंगों की पृथक् पृथक् उपासना करने से अनेक संशय उपस्थित होते हैं". इत्यादि ।
तत्र संशयः, किं वैश्वान रशब्देन ब्रह्म प्रतिपादयितुं शक्यते न वा ? अर्थस्यातिसंदिग्धत्वात् संदेहः । तत्रोपक्रमे ब्रह्मात्मप्रद प्रयोगोऽस्ति नान्यत किंचित् , उपपादनेत्वद्धर्मा एव । साकारम्य तु लोकन्यायेनाब्रह्मत्वम् ।
उक्त प्रसंग पर संशय होता है कि, वैश्वानर शब्द से ब्रह्म का प्रतिपादन हो सकता है या नहीं ? उक्त वाक्य का अर्थ प्रति संदिग्ध है, इसीलिये संदेह होता है। इसके उपक्रम में ब्रह्मात्मप्रद प्रयोग है किसी अन्य का नहीं हैं, उपपादन भी उन्हीं के धर्मों का किया गया है। किंतु वैश्वानर की साकारता का वर्णन होने से लौकिक दृष्टि से अब्रह्मत्व प्रतीत होता है ।
वैश्वानरो यद्यप्यम्नावेव प्रसिद्धस्तथापि पूर्वकांडसिद्धत्वात् देवात्मपरिग्रहो युक्तः । ततश्च, सवत्सरोवा अग्निवैश्वानर इति श्र तेः संवत्सरस्य प्रजापतिस्वाच्च हिरण्यगर्भोपासनापरमिदमिति गम्यते । ब्रह्मात्मशब्दावपि हि तत्रैव युक्ततरौ। तदुपासकस्यैवान्न भोजमस्वमपि सर्वत्र युक्तम् प्रादेशम त्रत्वमपि मुपजीवत्वादस्मदापेक्षया स्थूलत्वाभिप्रायम् । विराडभिमानत्वान्च लोकावयवत्वम । वेदगर्मत्वादग्नित्रयात्मकत्वमिति । तस्माद्धिरण्यगर्भापासनापरमेवंतद् वाक्यं, न भगवदुपासना परम् ।
यद्यपि "अग्निवश्वानरो वह्निः" इत्यादि कोश के अनुसार वैश्वानर शब्द भूताग्नि के रूप से प्रसिद्ध है, फिर भी पूर्व मीमांसा में "विश्वस्मा अग्नि भुवनाय देवा वैश्वानरम्" इत्यादि से देवात्म वाची रूप से कहा गया है । उत्तर मीमांसा में वृहदारण्य के सप्तान ब्राह्मण में "संवत्सरोवा अग्निबैश्वानरः" इत्यादि में संवत्सर नाम से इसका उल्लेख है । तेतरीय वृहन्नारायणोपनिषद् में "प्रजापतिः संवत्सरः" कह कर संवत्सर को प्रजापति बतलाया गया है जिससे उपर्युक्त प्रसंग हिरण्यगर्भ की उपासना परक निश्चित होता है। ब्रह्म और आत्मा शब्द भी उस हिरण्यगर्भ में संगत हो जाते हैं। उसके उपासक की, प्रन्न भोजन वाली बात भी सुसंगत हो जायकी । उसके