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विवक्षिता गुणोपपत्तश्च ॥११२॥
विवक्षिता लोकान्तरे तादृशरूप प्राप्तिः, सा प्रकृते अप्युपपद्यते, भगवत्स्वरूपालाभात् सारूप्यलाभाद्वा, न च व्याप्तिरुक्तेत्यधमप्राप्तयुपायो युक्तः । सत्य संकल्पादिवचनं न ब्रह्मवाक्यत्वपोषकमिति चकारार्थः ।
उक्त प्रसंग में, लोकान्तर में वैसी रूप प्राप्ति होती है यही अर्थ विविक्षित है, यह प्रकृति रूप से भी हो सकती है, वह चाहे भगवत् स्वरूप प्राप्ति हो या उनके समान प्राप्ति हो । व्याप्ति की उक्ति से, अधम शरीर की प्राप्ति के उपाय की बात मान लेना संगत नहीं है। सूत्र में किया गया चकार का प्रयोग बतलाता है कि सर संकल्प आदि गुणों को बतलाने वाला वाक्य भी ब्रह्मस्वरूप बोधक वाक्य का ही पोषक है।
नन्वतावतापिनकान्ततो ब्रह्मवाक्यत्वमुपपत्त रुभयत्रापि तुल्यत्वादित्याशंक्य परिहरति ।
केवल इतना मान लेने मात्र से ब्रह्मवाक्यत्व की एकान्तता निश्चित नहीं होती, प्रायः जीव और ब्रह्म दोनों के गुणों के विधायक वाक्य समान रूप से प्राप्त होते है, इस संशय का परिहार करते हैंअनुपपत्तेस्तु न शारीरः ॥१।२।३।।
न च प्राणशरीर रूपो जीवो भवति । तिरोहितानन्दत्वेन निराकारत्वात् अध्यासेनतथात्वेत्वनुपास्यत्वमेव । इदानीमेवोपासकस्यापितथात्वात् । न च प्रासोदेलौकिकत्वन उपदेशानर्थक्य प्रसंगात्, अत आनन्दरूप निवृत्तत्वात् तु शब्दः । विज्ञानमयेतु प्राप्ताप्राप्त विवेकेन वर्मस्यैवोपासना ।
प्राण शरीर रूप वाला, जीव नहीं होता। छिपे हुए प्रानन्द और निराकार होने से केवल अध्यास के आधार पर जीव में वैसी अहंता सम्भव नहीं है, इसलिए उसका अनुपास्यत्व तो निश्चित ही है। जिस प्राण के उपास्यत्व की चर्चा है वह लौकिक प्राणवायु सम्बन्धी नहीं है, जीव को प्राण शब्द मात्र से सम्बोधित किये जाने से उपास्य नहीं कहा जा सकता वह जीव उपासक कहा गया है, वही उपास्य रूप हो ऐसा सम्भव नहीं है, यदि उपास्य और उपासक को एक मान लेंगे तो, उपासना का प्रवचन निरर्थक सा हो जायगा । जीव में, आनन्द रूप प्राण शरीरत्व का अभाव है, इसलिये उक्त वाक्यार्थ जीव परक नहीं हो सकता। सूत्र का तु शब्द पूर्वपक्ष का निवारक है। विज्ञानमय के प्रसंग में तो धर्म की ही उपासना का वि य