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क्या उन्क वाक्य का ऐसा प्रतिपादन नहीं हो सकता कि प्रभावशाली कोई जीव विशेष ही यम या किसी रोग आदि अन्य साधनों से समस्त जगत को वशंगत कर लेता है, अतः यह जीव सम्बन्धी वाक्य ही है, इस संशय का उत्तर देते हैं___यह ब्रह्म सम्बन्धी प्रकरण ही है, उक्त प्रकरण में "न जायते' इत्यादि से प्रारम्भ करके "पासीनो दूरं ब्रजति" इत्यादि से माहात्म्य बतला कर अंत में "ब्रह्म च क्षत्रं च" इत्यादि कहा गया है प्रतः इस प्रकार प्रकरण के अनुसार ब्रह्म वाक्यता ही निश्चित होती है सूत्र में किये गये चकार के प्रयोग में तात्पर्य है कि यदि उक्त वाक्य को ब्रह्म परक नहीं मानेंगे तो यह साधारण पराक्रम और साधारण कल्पना मात्र रह जायेगा। गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात ॥१॥२॥११॥
तस्यैवाने पठ्यते "कृतं पिबन्ती सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ परमे पराद्ध, छायातपो ब्रह्मविदो वदंति पंचाग्नयो ये च त्रिणाचिकेता" इति । किमिदं ब्रह्मवाक्यमाहोस्विदन्यवाक्य मिति । अत्र वाक्यस्योत्तरशेषत्वे जीव प्रकरण पठित्वान्न ब्रह्म वाक्यत्वम्, पूर्वशेषत्वे तु ब्रह्मवामिति प्रकरण निर्णयः । मध्ये पाठादेवं संदेहः । अर्थविचारे तु द्विवचन निर्देशात् पूर्वशेषत्वे बद्धमुक्त जीवौ भविष्यतः, उत्तरशेषत्वेत्विन्द्रियमनसी । उभयत्रापि न ब्रह्म वाक्यम् द्वयोमुख्यत्वेन प्रतिपादनात् । ब्रह्म वाक्यत्वेऽपि न प्रयोजन सिद्धिः । ___ उपर्युक्त प्रकरण के आगे ही वर्णन है कि "शुभ कर्मों के फलस्वरूप मनुष्य शरीर के भीतर गुहा में छिपे हुए सत्य का पान करने वाले दो हैं, वे दोनों छाया और प्रातप की तरह विरुद्ध स्वभाव वाले हैं, ऐस। ब्रह्मवेत्ताओं का कथन है, जो कि तीन बार नाचिकेत अग्नि का चयन करेने वाले पंचाग्नि संपन्न ग्रहस्थ हैं "इस पर विचार होता है कि यह ब्रह्म परक वाक्य है अथवा अन्यपरक ? इस वाक्य के उत्तरार्व के शेष में जीव सम्बन्धी वर्णन से तो यह ब्रह्म परक समझ में नहीं आता । पूर्वाध के शेष से ही इसे ब्रह्म परक प्रकरण कहा जा सकता है । मध्य के वर्णन से ही संशय उत्पन्न होता है । अर्थ संबंधी विचार करने से द्विवचन के प्रयोग से तथा पूर्वाध के "तिम वर्णन से बद्ध मुक्त जीव का वर्णन प्रतीत होता है । इस प्रकार दोनों ही प्रकार से ब्रह्म परक नहीं समझ में आता क्यों कि दोनों का ही मुख्य रूप से प्रतिपादन किया गया है । इस वाक्य को ब्रह्म परक मान भी लिया जाय तो भी उक्त वर्णनों की संगति नहीं बैठती।