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उपर्युक्त मत पर सिद्धान्त रूप से "अत्ता चराचर ग्रहणात्" सूत्र प्रस्तुत करते हैं, अर्थात् प्रत्ता भगवान ही हैं क्यों कि चर अचर सभी को उनका भक्ष्य बतलाया गया है । सभी प्राणियों को मारने के लिए भ्रमण करने वाले मृत्यु और किसी से भी न डिगाये जाने वाले ब्राह्मण और क्षत्रिय रूर चर अचर को भक्षण करने वाला जीव कदापि नहीं हो सकता । समस्त चराचर के भक्षण की बात अतिशय है जो कि महान क्रूरता सी है, परन्तु स्वार्थ से की गई हिंसा ही क्रूरता कहलाती है, जहां स्वार्थ का उल्लंघन कर होती है उसमें क्रूरता की बात लागू नहीं होती, जैसे कि लोक राजकुमार या राज कर्मचारी राजकार्य के लिए दमन दंड आदि स्वार्थ रहित होकर करते हैं, उसमें क्रूरता हिंसा जन्य दोष नहीं होती । यह सारा जगत सृष्टि के पूर्व परमात्मा में ही निहित था इस भाव को लौकिक भक्षण आदि के कथन से स्पष्ट किया गया है, वैसे परमात्मा प्रलयकर्ता हैं उस दृष्टि से भी भक्षरण की बात मसंगत नहीं है । सब जगह विद्यमान होते हुए भी वह सामान्यतः अज्ञात से ही हैं इसीलिए उनके स्थान के अज्ञान की बात कही गई है। ब्रह्म और क्षत्रिय को प्रोदन रूप कहा गया है वह भी मोक्ष भाव की अपेक्षा से है जैसे कि चावल जब तक अपने रूप से परिवर्तित होकर भात नहीं हो जाता तब तक भक्ष्य नहीं होता वैसे ही ये ब्राह्मण क्षत्रिय शरीराभिमान से छूट नहीं जाते तब तक मुक्त नहीं होते, मृत्यु सम्बन्ध मात्र से ही ये बात कही गई है, भोक्ता भगवान में प्रविष्ट होने की योग्यता की बात ही इस कथन से परिलक्षित होती है । प्राणों की एक मात्र गति वे ही हैं, इसलिए मृत्यु की बात भी उन्हीं में संगत होती है । समस्त चराचर जगत उन्हीं में लीन हो जाता है और जन्म मरणादि से छूटकर उनमें ही प्रवेश करता है । इससे निश्चित होता है कि इस वाक्य में जो ब्राह्मण क्षत्रिय के मृत्यु और भोग्यता की बात कही गयी वह भगवान के लिए ही है, ऐसा निश्चित होता है :
ननु किमित्येवं प्रतिपाद्यते । पूर्वपक्षन्यायेन यमोऽन्योवा मृत्यु साधनीकृत्य सर्व करोतीति जीववाक्यमेव किन्न स्यादित्यत आह-- प्रकरणाच्च ।१।२॥१०॥ प्रकरणं हीदं ब्रह्मणः । न जायत इत्यारम्याऽसीनो दूरं ब्रजतीत्यादिना माहास्म्यं वदन्नन्ते, यस्य च ब्रह्म च क्षत्रं चेत्याह । अतः प्रकरणानुरोधात् पूर्वोक्त प्रकोरण ब्रह्मवाक्यत्वमिति, अन्यथा प्रकृतहानाप्रकृत कल्पने स्यातामितिचकारार्थः।