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कर रहे हैं । समस्त ब्राह्मण क्षत्रियों का बध सामान्य व्यक्ति से संभव नहीं है और सबको मारने वाले मृत्यु को खाने की शक्ति हीजीव में संभव है इसलिए, इस महान को जीव मानने का संशय करना शक्य ही कैसे है ? परन्तु मोदन
और उपसेचन का जो वर्णन है वह तो जीव के ही धर्म हैं, तथा जो अज्ञात की बात "क इत्था" इत्यादि से कही गई है वह भी जीव के संबंध में ही हो सकती है, क्यों कि विभिन्न स्थलों पर जीव के विभिन्न स्थानों का वर्णन किया गया है कोई निश्चित स्थान नहीं है । परमात्मा का तो हृदय निश्चित स्थान हैं, फिर सर्वगत और हृदय में प्रवभासित होने वाले परमात्मा की अज्ञानता की बात समझ में भी नहीं पाती । अलौकिक सामर्थ्य की बात में अवश्य संदेह होता है।
"न हिंस्यात् सर्व भूतानि" इत्यादि श्रुतियों में हिंसा को निषिद्ध कहा गया है, परन्तु इस प्रसंग में प्रोदन रूप से इसे लौकिक सा वर्णन किया गया है. जो कि वस्तुतः अलौकिक ही है, ऐसा अलौकिक कर्म महादेव काली अग्नि प्रादि सामर्थ्यवान देवताओं का भी हो सकता है (अर्थात् निषिद्ध और अलीकिक कर्म सामान्य जीव का संभव नहीं है । महादेव के निषिद्ध भक्षण की बात तो अगस्त्य संहिता के प्रथम अध्याय में महादेव से ही पार्वती ने कहा है-"भक्त्यार्पयन्ति ये मह्य तवापिपिशितादिकम्, तृप्तिमु.पादयत्येव विधिनाऽविधिनापितम्") महादेव आदि रुद्र देवों से सर्वथा विरुद्ध शान्त, दयालु करुणावरुणालय भगवान ऐसे कदापि नहीं हो सकते । इ।लिए, उपासना की दृष्टि से जीव की ही महानता और महाप्रभाव को दिखलाने के लिए ऐसा अलौकिक वर्णन किया गया, प्रतीत होता है ।
एवं प्राप्तेऽभिधीयते-अत्ता चराचर ग्रहणात् । अत्ता भगवान एव, कुतः ? चराचर ग्रहणात् । चरं सर्वप्राणिवधार्थ परिभ्रमन्मृत्युः, अचर ब्रह्मक्षत्र रूपं कस्याप्यचाल्यम्, तयोरत्ता न जीवो भवितुमर्हति । ___तत्राप्यतिशयोदृष्टः स स्वार्थानतिलंघनादिति न्यायात् । अस्मदादि प्रतिपत्त्यथं तु लौकिकवचनंभोक्त त्वाय । प्रलयकत्तृत्वान्नायुक्तत्वम् । सर्वत्र विद्यमानस्याप्यज्ञायमानत्वात् फलतः स्थानाज्ञानमुक्तम् । ब्रह्मक्षत्रयोऽपि मोक्षा पेक्षित्वान्मृत्युसबंधमात्रेण भगवति भोक्तरि प्रवेशार्थ योग्यरूपमेवौदनत्वम् । प्राणानां तत्रैव समबलयान्मृत्युरपि तत्रैव लीनोऽग्रे जन्ममरणाद्यभावाय भगवत्येव प्रविशति । तस्मादस्मिन्वाक्ये ब्रह्मक्षत्रमृत्यूनां भोग्यत्वेन ग्रहणादत्ता भगवानेवेति सिद्धम् ।