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विशेषेण भगवस्यपदिश्यन्ते । सर्वेषां तत्तत्कार्यसामर्थ्य च भगवतो न तु स्वतस्तेषामिति । एवं च सत्यन्यत् सर्व संगतं भवति । तस्माद् ब्रह्मवाक्यमेव । अन्यथा त्वधिकरण रचना, अन्तस्तद्धर्माधिकरणेन गतार्थत्वायुक्त व ।
उक्त मत. पर, "अन्तर्यामि" इत्यादि सूत्र प्रस्तुत करते हैं अर्थात् अधिदेवादि में अन्तर्यामी भगवान ही हैं, कोई और वैसा नहीं हो सकता । जो यह कहो कि भगवान की ऐसी निषिद्ध कल्पना क्यों की? उसका उत्तर देते हैं-"तद्धर्मउपदेशात्" अर्थात् उक्त प्रकरण में जो अन्तर्यामी के लिए विशेषण प्रयुक्त हैं वे परमात्मा के लिए किये गये अन्यान्य विशेषणों की ही प्रतिकृति हैं, उन विशेषणों से भगवान को ही विभूषित किया जाता है, यदि किसी में उन विशिष्ट कार्यों का सामर्थ्य होता भी है तो वह भी भगवान की अन्तः प्रेरित शक्ति से होता है, स्वतः किसी में नहीं होता । ऐसा सिद्धान्त मान लेने से उक्त प्रसंग में जो कुछ भी असंगतियां दृष्टिगत होती हैं वे भी सुसंगत हो जाती हैं, इससे यही निश्चित होता है कि यह ब्रह्म परक काक्य' ही है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो इस अधिकरण की रचना ही व्यर्थ हो जायेगी, प्रान्तस्तद्धर्माधिकरण से ही यह अधिकरण गतार्थ है।
न च स्मार्त तद्धर्माभिलापात् ।१।२।१६॥
ननु ब्रह्मवादे. अन्तर्यामी न प्रसिद्धः । जीवब्रह्मजडानामेव प्रसिद्धत्वात् । अलोऽन्तर्यामिसः सांख्यपरिकल्पितस्य गुणयोगात् तादृशस्यब्रह्मत्वे वा कः पुरुषार्थो भक्त् ? नहीश्वरं प्रकृति धर्मारूढ़मन्तर्यामिणं मन्यन्ते तादृशस्योपनिषत्स्वभावात् पूर्वपक्ष न्यायेन स्तुतिपरत, तन्मतस्य वा श्रीतत्वम् ।
, ब्रह्मवाद में अन्तर्यामी की बात तो प्रसिद्ध है नहीं वहां तो स्पष्टतः जीव, ब्रह्म, जड़ इन तीन तत्त्वों की ही प्रसिद्धि है, अन्तर्यामी की बात तो सांख्य वादियों की परिकल्पना है, यदि उन्हीं गुणों की समानता के आधार पर हम' ब्रिा की अन्तर्यामिता की भी परिकल्पना करते हैं तो उसमें ब्रह्म की क्या
वशेषता होगी? सांख्य वादी भी प्रकृति के धर्म अन्तर्यामिता को ईश्वर में नहीं स्वीकारते । फिर यदि हम उन्हें अपने ब्रह्म में स्वीकारते हैं तो वह सांख्य वादियों की स्तुति मात्र सिद्ध होगी, या उनके मन को शास्त्र सम्मत मानना पड़ेगा।