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. १२२ जाती है, वह पलकों पर ही रहती है"- इत्यादि श्रुति है, इस पर संशय होता है कि इसमें प्रतिबिम्ब पुरुष का ब्रह्मत्वभाव उपासना की दृष्टि से वर्णन किया गया है अथवा ब्रह्म का ही वर्णन है ? विरुद्धार्थवाचक शब्दों के प्रयोग से ही ऐसा संशय होता है ।
तत्र दृश्यत इति वचनात् प्रतिबिम्ब एवायम् । ब्रह्म प्रकरणस्य च समाप्तत्वादेषा "सौम्य ! तेऽस्माद्विद्या आत्मविद्या च" इत्युपसंहारात् तत्सिद्धयर्थमुपासनापरतव वाक्यस्य युक्तः ।
"तत्र दृश्यते'' इस पद से तो प्रतिबिम्ब पुरुष का वर्णन ही प्रतीत होता है । ब्रह्म प्रकरण की समाप्ति में- "हे सौम्य ! तुझे इस विद्या से प्रात्मविद्या का उपदेश देता हूँ" इस प्रकार का उपसंहार किया गया है, जिससे यह वाक्य उपासनापरक ही समझ में आता है।
प्रविरोधे हि ब्रह्मपरता । उपास्यत्वेन ब्रह्मधर्माणामन्वयो भविष्यतीत्येवं प्राप्त उच्यते-अन्तरः, अक्षिमध्ये दृश्यत् इत्युक्तः परमात्मव, कुतः ? उपपत्तेः, उपपद्यते हि तस्य दर्शनमार्षम् सर्वत्र ब्रह्म पश्यन् वहिः सन्निधाने तस्य स्थानस्योत्कृष्टत्वात् तत्र भवन्तमुपदिशति । "लोक वा व तेऽवोचन्नहं तु ते तद्वक्ष्यामि" इति महदुपक्रमाच्च । प्रतिबिम्बमात्रस्य च न पुरुषत्वनियमः तस्माद् विरोधाभावाद् ब्रह्मवाक्यमेव ।
इस वाक्य में आदि से अन्त तक एक भी विरुद्धार्थ पद नहीं है जिससे कि संशय किया जाय, सारे ही पद ब्रह्म को विशेषता के द्योतक हैं, इससे ब्रह्म परक वाक्य माना जाय, ऐसा कहना कठिन है उपास्य रूप से ब्रह्म धर्मों का अन्वय हो सकता है । इस पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं, अन्तरः अर्थात् प्रांखों के मध्य में दृश्य परमात्मा ही हैं क्यों कि उनके दर्शन की बात ही ऋषि मत सम्मत है, सर्वत्र ब्रह्म दर्शन का उत्कृष्टतम स्थान नेत्र ही है इसलिए उसमें भगवान की स्थिति बतलाई गई है "लोकं वा " इत्यादि में परमात्मा के उत्कृष्ट निवास स्थलों का वर्णन करते हुए प्रकरण का उपक्रम किया गया है। केवल प्रतिबिम्ब को कहीं भी पुरुष कहा भी नही गया ह, इसलिए कहीं भी विरोध नहीं है, उक्त वाक्य ब्रह्म परक ही है। स्थानादिव्यपदेशाच्च ।१।२।१४।।