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मभिधीयते । सच्चितोनं ब्रह्मख्यापकत्वमिति सुखमेव निदिष्टम् । अतः सुख विशिष्टाभिधानादेक ब्रह्म वाक्यमिति एषा मुख्योपपत्तिरित्येवकारः । चकारात् सदादिभिरपि, तस्माद् ब्रह्म वाक्षिपुरुषः ।
किन विशिष्ट आधारों पर ब्रह्मवाक्यता का समर्थन करते हो, उपासना परक वाक्य मानने में क्या दोष है ? इस संशय का उत्तर देते हैंसुखविशिष्टाभिधनात्' अर्थात् अक्षिपुरुष को सुखविशिष्ट कहा गया है उसी आधार पर समर्थन करते हैं । 'यही अमृत अभय यही ब्रह्म है" इत्यादि विशेषण इसके लिए दिए हैं यदि उक्त प्रसंग में उपासना की बात मानी जाय तो, “यही आत्मा" और अमृत आदि शब्दों के प्रयोग व्यर्थ ही हो जावेंगे। परमात्मा की इन विशेषतानों का तो पहिले ही उल्लेख हो चुका है । अमृत आनंदवाची, अभय चित् वाची तथा ब्रह्म सत वाची पद हैं इस प्रकार “एतदमृतमभयभेतद् ब्रह्म" में सच्चिदानंद परमात्मा का स्पष्ट उल्लेख है । इस अक्षि पुरुष के लिए ही सुखविशिष्ट का प्रयोग किया गया है । वस्तुतः सत् और चित् ये दोनों उतने, ब्रह्म के स्वरूप के ख्यापक शब्द नहीं हैं जितना कि आनंद शब्द है, इसलिए उसे सुख शब्द से ही विशेष रूप से निर्देश किया गया है । उसे सु . विशिष्ट बतलाया गया इस आधार पर ही इस वाक्य को ब्रह्म परक कहा गया है। एकमात्र यही मुख्य प्राध र है । सूत्रस्थ च बतलाता है कि सत् चित् भी उसी के लिए प्रयोग किये जाते हैं, उनका प्रयोग भी है इसीलिए ब्रह्म ही अक्षि पुरुष है। श्रुतोपनिषत्कगत्याभिधानाच्च १।२।१६।।
स्वरूपतो निर्णीय फलतो निर्णयमाह-श्रु तोपनिषत्कस्य; श्रुता उपनिषद् विद्या येन तस्य प्रविदो या गतिर्देवयानाख्या सा अक्षिपुरुषविदोsप्युच्यते--"अथ यदु वै वास्मिन् शव्यं कर्म कुर्वन्ति, यदि च नाचिषमेवाभियन्ति" इत्युपक्रम्य- "चन्द्रमसो विद्यतं तत्पुरुषोअमानवः स एतान ब्रह्म गमयति, एष देवपथो ब्रह्मथ इत्येतेन प्रतिपद्यमाना इमं मानव मावर्त नावन्तन्ते” इति ब्रह्म विदोऽप्येष एव मार्गः पुनरावृत्ति रहितः । चकारस्तूक्त समुच्चेयेनाधिकरणपूर्णत्वबोधकः।
स्वरूप से निर्णय करके अब फलं से निर्णय करते हैं। उपनिषद् विद्या विदों की जो देवयान गति बतलाई गई है वही प्रक्षिपुरषवेत्तानों की