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१२५ भी कही गई है जैसे-"यदि इस पुरुष के ज्ञाता का प्रौद्धदैहिक संस्कार किया जाय या न किया जाय वह अचिरादि गति ही प्राप्त करता है" ऐसा उपक्रम करके- “वह चन्द्रमा से विद्यु त विद्युत से अमानव दूतों को प्राप्त होकर उनके द्वारा ब्रह्म तक पहुंचाया जाता है, यही देवपथ ब्रह्म पथ है, इससे जाकर यह मानव पुनः नहीं लौटता' इत्यादि-ब्रह्म वेत्ता का भी यही पुनरावृत्ति मार्ग है। सूत्रस्थ चकार समुच्चय बोधक है, जो कि अधिकरण की पूर्ति की सूचना दे रहा है । अनवस्थितेरसंभवाच्च नेतरः।१।२।१७॥ ___ इदमेवाधिकरणं पुननिषेधमुखेन विचारयति । ननूपासना परत्वेऽपि सर्वमुपपद्यते । तद्धर्मव्यपदेशेनैवोपासनोपपत्तेः । अतः सर्वा उपपत्तयो व्यपदेशिवद् भावेन संगच्छन्त । इत्येवं प्राप्त उच्यते-इतरो नात्र वाक्यार्थः, अनवस्थितेरस्थिरत्वात्, उपदेशकवाक्यत्वादुपदेष्टुरेव चक्षुर्गतं भवेत् । तथा च वक्त दर्शनाभावादनाप्तत्वम् । द्रष्दुरपगमे चापगच्छति सद्वितीये तु सद्वितीयः । उपासनाकालेच सुतरामनवस्थितिः सद्वितीयोपासनायामपि श्रवण मननयोभिन्न विषयत्वात् अनवस्थितिः । वक्त रेव नियमे गुरोनिबन्धेन सुतरामनवस्थितिः ।
इसी अधिकरण को पुनः निषेध करते हुए विचार करते हैं कि अक्षि पुरुष को उपासनापरक मानने से भी सब कुछ बन सकता है, अर्थात् प्रक्षिपुरुष को ब्रह्म सिद्ध करने के लिए ऊपर जितने भी प्रमाण उसके पक्ष में उपस्थित किये हैं वे सभी उपासना के पक्ष में भी घटित हो सकते हैं. क्यों कि वे सारे परमात्मा के धर्म उसकी उपासना से संबद्ध हो सकते हैं क्यों कि वही तो उपास्य है । इस पर सूत्र प्रस्तुत करते हैं, कि ब्रह्म के अतिरिक्त दूसरी कोई भी वाक्यार्थ की नहीं हो सकता परमात्मा ही एकमात्र निरन्तर नेत्रों में स्थित रह सकते हैं, दूसरा और कोई स्थिर नहीं रह सकता । यदि किसी सामने वाले व्यक्ति को दृष्टिगत माना जाय तो उसके चले जाने पर अक्षि पुरुष की अप्राप्ति हो जावेगी क्यों कि वह तुम्हारे कथनानुसार सामने वाले पुरुष का प्रतिबिंब मात्र ही तो था । अक्षि पुरुष का द्रष्टा यदि चला जावे तो उसको प्रतिबिंब भी चला जावेगा, कोई दूसरा प्रावेगा वह भी अक्षिपुरुष को देखेगा और अपना ही प्रतिबिम्ब बतलावेगा, निश्चित रूप से कोई यह भी कह नहीं सकता कि नेत्रगत छवि स्थिर या अस्थिर है। उपासना काल में भी अस्थिरता ही रहेगी, क्योंकि उस समय श्रवण मनन