________________
१२१
" इस मनुष्य के मर जाने पर इसका क्या रूप होता है ? इस प्रश्न पर, कोई कहता है कि इसका अस्तित्व रहता है और कोई कहता है इसका कोई अस्तित्व नहीं रहता; इस रहस्य को मैं प्रापसे जानना चाहता हूँ" यह जीव सम्बन्धी प्रश्न है । तथा - " अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मात्" इत्यादि ब्रह्म सम्बन्धी प्रश्न है । इस प्रसंग में ब्रह्म के स्वरूप का निरूपण करके जीव स्वरूप को निरूपण करने के लिए, उन दोनों के समान रूप से महाभोग को दिखलाने के लिए बीच में दोनों स्वरूप का वर्णन किया गया है, इससे निश्चित होता है कि यह वाक्य ब्रह्मपरक ही है ।
विशेषणाच्च |१| २|१२ ॥
विशेषणानि पूर्वोक्तानि जीवब्रह्मणोरेव संगतानि अग्रिमंवा "आत्मानं रथिनं विद्धि, सोऽध्वनः पारमाप्नोति, तद्विष्णोः परमं पदम्" इति जीव प्राप्यं ब्रह्म आह् । अत उभयोरेव सर्वव्यावृत्या कथनादग्रिमनन्यपर्यालोचन - यापीदं ब्रह्मवाक्यमेव । " द्वासुपर्णा इति निः संदिग्धम् । चकारः प्रकरणोक्त सर्वोपपत्तिसमुच्चयार्थः ।
पूर्वोक्त विशेषरणों की संगति ब्रह्म और जीव दोनों में ही होती है । इसी प्रसंग में आगे - " आत्मा को रथी जानो, उस मार्ग से उत्तीर्ण हो जाता है, वह विष्णुका परम पद है'' इत्यादि में जीव के प्राप्य ब्रह्म का वर्णन किया गया है । तथा दोनों के सर्व विलक्षण कथन और आगे के ग्रन्थ की पर्यालोचना से भी यह ब्रह्मपरक वाक्य ही निश्चित होता है । " द्वा सुपर्णा" श्रादि श्रुति तो असंदिग्धरूप से इन दोनों का वर्णन करती ही है । सूत्रस्थ च का प्रयोग समुच्चय बोधक है, यह सूचित करता है कि प्रकरण के सभी वाक्य एक ही बात के समर्थक हैं ।
अन्तर उपपत्त ेः | १| २|१३||
" य एषोऽक्षिरिण पुरुषो दृश्यते, एष आत्मेति होवाचैतदमृतमभयमेतद् ब्रह्म ेति, तद यद्यप्यस्मिन् सर्पिर्वोदकं वा सिंचतिवरमैनी एव गच्छति" इत्यादि श्रयते, तत्र संशयः, प्रतिबिम्बपुरुषस्य ब्रह्मत्वेनोपासनापरमिदं वाक्यं, ब्रह्मवाक्यमेवेतिवा ? विरुद्धार्थं वाचकत्वात्संदेहः ।
"जो यह प्रांखों में पुरुष दीखता है, यही श्रात्मा हैं यही अमृत है यही अभय है और ब्रह्म है, यदि आँख में घी या पानी श्रादि जो भी वस्तु डाली