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१११ पुरुषपृच्छामि" इति श्रुतेः केवलोपनिषद्वेयं ब्रह्म न प्रमाणान्तरवेद्यम् । ततश्चार्जुनस्य शिष्यरूपेण प्रपन्नस्य पुष्टि भक्तत्वाभावाद् भगवद्वाक्ये निविचिकित्सविश्वासाभावाद् रथित्वेनैव स्थाप्यत्वान्न तादृशाय तादृशदेशकालयोरुपनिषदामवक्तव्यत्वाद् गुरुरूप तादृशरूपं निस्वसितवेदोद्गमजनक रमृत्वा, तदर्थमपि स्मृत्वा भगवान् पुरुषोत्तमो वाक्यान्युक्तवान् स्मृतिरूपाणि ।
"हे अर्जुन ! ईश्वर समस्त भूतों के हृदय स्थल में बैठा है" इस प्रकार स्मृति में भी भगवान ने स्वयं ब्रह्म को हृदय का अभिमानी देवता कहा है । संशय होता है, कि समस्त वेदों को तो भगवान के निःश्वास कहा गया है, फिर भगवद् वाक्य गीता को स्मृति कैसे कहा ? (समाधान) "मैं उस
औपनिषद् पुरुष को पूछता हूँ" इस श्रुति में, ब्रह्म को केवल उपनिषद् वेद्य कहा गया है, अन्य प्रमाणों से वेद्य नहीं कहा है। परन्तु पुष्टि भक्तिभाव से शरणागत शिष्य अर्जुन के पूछने पर, रथ में उपस्थित होने के कारण, देशकाल को देखते हुए कि इस स्थिति में उपनिषद् का उपदेश देना उचित नहीं है, गुरुरूप उन पुरुषोत्तम भगवान ने निःश्वसित वेदों के तत्त्वों का और उनके अर्थों का स्मरण करके, स्मृति रूप वाक्यों का प्रवचन किया ।
ततोब्रह्म विचारे तान्यप्युदाहृत्य चिन्त्यते । पुनश्च भगवांस्तदधिकारेण ब्रह्म विद्या निरूप्य स्वकृपालुतया सर्वगुह्यतममित्यादिना भक्तिप्रपत्ती एवोक्तवान्, अतोऽगत्वेन पूर्व सर्वनिर्णयाउक्ता इत्यध्यवसेयम् । तथैवार्जुन विज्ञानात् "करिष्येवचनं तव" इति । चकारात् तन्मूलभूतनिश्वासोऽप्युच्यते, व्यासस्यापि भगवज्ज्ञानांशत्वाददोषः ।
___ इसीलिए, ब्रह्मतत्त्व के विचार में गीता को भी उदाहरण रूप से उपस्थित करते हैं । भगवान ने गीता में पात्र के अधिकारानुसार ब्रह्मविद्या का निरूपण करके अपनी विशेष कृपा से गुह्यतम भक्तिप्रपत्ती का भी प्रवचन किया है । ज्ञान कर्म आदि सब इस भक्ति प्रात्ती के अंगमात्र हैं, ऐसा पहिले ही निर्णय किया जा चुका है। वैसा ही हमें अर्जुन के इस कथन से "आपके वचनों का पालन करूंगा" से ज्ञात होता है। सूत्र में किये गये चकार के प्रयोग से यह अर्थ स्फुटित होता है कि-वेदों के मूलभूत गीता स्वरूप निःश्वासों से भी उक्त वैदिक कथन की पुष्टि होती है । यदि कोई कहे