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पुनः इस प्रकरण में ज्ञान शक्ति का उत्कर्ष दिखलाने के लिए "अथ खलु यथा प्रज्ञाय" से प्रारम्भ करके "नहि प्रज्ञापेतोऽर्थः कश्चन् सिद्ध्येत्” इस अन्तिम वाक्य तक ज्ञानशक्ति का उत्कर्ष दिखलाकर केवल धर्ममात्र के निराकरण के लिए ज्ञानशक्तिमान भगवान का " नहि प्रज्ञातव्यम्" से प्रारम्भ कर "मतारं विद्यात्" तक निर्देश किया गया है । इसके बाद ज्ञान क्रिया शक्ति के विषय भूत पंचमहाभूत और पंचतन्मात्रा रूप जगत का भगवान से अभेद बतलाने के लिए " स एष प्रज्ञात्मा" इत्यादि ब्राह्म धर्मों का उल्लेख करते हुए प्रकरण क" उपसंहार किया गया है । इस प्रकार, क्रिया ज्ञान रूप भगवान ही हैं ऐसा प्रतिपादन करके, वे इतने ही नहीं है, उससे भी अधिक हैं, ऐसा भाव दिखलाते हुए श्रद्वैत उपासना का विधान किया गया है। इससे सिद्ध होता है कि जड जीव रूप होने से सर्वात्मक ब्रह्म ही है, यही महावाक्य का तात्पर्य है !
प्रथम अध्याय प्रथमपाद समाप्त