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इनकी एकता मानना ही संगत है, ये दोनों साथ ही उत्क्रमरण करते हैं । ये ब्रह्म से एकदम विलक्षण नहीं है इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकरण में जीव और मुख्य प्रारण का ही उल्लेख है यह ब्रह्म का प्रकरण नहीं है । इनका इस प्रकरण में किस रूप से उल्लेख है यह विचारणीय है क्या जीव धौर मुख्य प्रारणवाची ब्राह्म धर्मों की जीव परता है अथवा तीनों की स्वतन्त्रता है अथवा उभयवाची शब्दों की ब्राह्म धर्म रूप से विवृत्ति है ? प्रथय बात का तो पहिले ही परिहार कर चुके, ब्राह्म धर्मो को किसी भी अन्य के धर्मों के रूप में नहीं स्वीकारा जा सकता । द्वितीय पक्ष के विषय में सूत्रकार दूषण बतलाते हैं, "उपासात्रै विध्यात् " अर्थात् ऐसा मानने से उपासना तीन प्रकार की सिद्ध होगा । तथा इनके स्वरूप प्रकाशक वाक्यों में भी भेद सिद्ध होगी । इसलिए द्वितीय पक्ष भी संगत नहीं है । तृतीय पक्ष ही सुसंगत है । जीव धर्म, ब्राह्म धर्म में उपपन्न हो सकते हैं, विरुद्ध नहीं है क्योंकि परमात्मा जीव का आश्रय है ( अर्थात् अंशी है ) इसलिए जीव के धर्म भी भगवदति ही हैं। सूत्र के इह पद का तात्पर्य है कि दोनों (जीव मुख्य प्राण) में ब्रह्मवाद में सम्बन्ध होने से ऐक्य है । मुख्य प्राण में जो ब्राह्मधर्मो का आरोप होता है वह भी जीव के योग से ही होता है । इसलिए प्राण धर्म भी भगवद्धमों से विरुद्ध नहीं है । प्रारण का भगवत्संबंध होने से उसके धर्मों का भी भगवत्सम्बन्ध निश्चित होता है । यदि कहा जाय तो यही कहना समीचीन होगा कि वस्तुतः वे सब ब्राह्म धम ही हैं, जीव धर्म नहीं है', जीव में तो वे ब्रह्माश्रित होने से भासित होते हैं [अर्थात् जीव ब्रह्म का अंश है इसलिए उसमें उनका भास होता है] ब्रह्मसूत्र के द्वितीय अध्याय के तृतीय पाद में "परात्तु तच्छ्रुतेः " सूत्र में परब्रह्म के सकाश से जीवों के कर्तृत्व का निरूपण किया गया है। मुख्य प्रारण का कत्तत्व
भी परब्रह्म के सकाश से है । सुषुप्ति और सम्पत्ति में जीव का ब्रह्माश्रितत्व है । इन अवस्थाओं में जीव का संयोग नहीं होता अपितु प्रभेद रहता है, क्योंकि ये आध्यात्मिक और प्राधिदैविक स्थिति है । प्रारण का तो संयोग होता है । इससे निश्चित होता है कि समस्त धर्म ब्रह्म के ही हैं ।
सहोत्क्रमस्तु क्रियाज्ञानशक्त्योर्भगवदीययोदेहे सहैव स्थानं सहोत्क्रमगमिति भगवदधीनत्वं सर्वस्यापिबोध्यते । ननु प्रारणस्तथानुगमादिति प्राण शब्देन ब्रह्मव प्रतिपादितं तत्कथं धर्म योरुत्क्रमणमिति चेत् । प्रत्र धर्म धर्मिणोरेकस्वपृथकत्वनिशयोविद्यमानत्वात् । प्राणोवामहमस्मिन्