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६८ ब्रह्म प्राकट्य की बात मानी गई है ।" मय्येव सकलं जातम् इत्यादि : पदेश वाक्यों से यही बात निश्चित होती है । __ "इहैव" समवनीयन्ते प्राणाः । "ब्रह्म व सन् ब्रह्माप्येति" इत्यप्याविर्भावापेक्षम् । तस्य च प्रायिकत्वान्न सूत्रे फलत्वमाह । जीवन्मुक्तानामपि परममुक्त वक्तव्यत्वाच्च ।
"इहैव समवनीयन्ते प्राणाः' ब्रह्म व सन् ब्रह्माप्येति" इत्यादि में भी आविर्भाव ही बतलाया गया है प्रायः सभी का आविर्भाव नहीं होता इसलिए सूत्र में फल रूप से उसका विवेचन नहीं किया गया है। जीवन्मुक्त जीवों की भी परममुक्ति बतलाई गई है, इसलिए भी इसका फल रूप से विवेचन नहीं किया गया।
असंप्रज्ञात समाधाविवाविर्भावदशायामेव शरीरवियोगे वियोनका भावात् वागादिमात्रं लीयते । तस्य च प्राप्तत्वादेव नाचिरादिगतिः । तथापि प्रायिकत्वान्न सूत्र गीतादिषु तद्वचनम् । सगुणनिर्गुणभेदेन नियमवचनं त्वप्रामाणिकमेव, ब्रह्मवादे गुणानंगीकाराच्च । तस्माद्युक्तमुक्तं शास्त्रदृष्ट्यातूपदेश । '
असंप्रज्ञात समाधि की तरह आविर्भाव दशा में भी शरीर का प्रसंश्लेश नहीं होता क्योंकि उसमें कोई वियोजक तो होता नहीं,इसलिए वागादि इन्द्रियों का ही लय होता है । यह मुक्ति की पूर्वावस्था है इसलिए मुक्त जीव । अचिरादिगति भी नहीं बतलाई गई है। अर्थात् जब जीव को ब्रह्मभाव की प्राप्त हो जाती है तब उसकी अचिरादिगति होगी ही क्यों ? प्रायः सभी की प्राविर्भाव दशा होती भी नहीं इसलिए ब्रह्म सूत्र गीता आदि में उसका वर्णन नहीं किया गया । सगुण और निर्गुण उपासक के भेद से, नियम वचन के रूप से, इस दशा का उल्लेख करना अप्रामाणिक भी होगा। ब्रह्मवाद में भक्तों को गुण स्वीकार भी हैं। इसलिए "शास्त्रदृष्ट्यातूपदेशः" ऐसा ठीक ही कहा गया है [सगुणोपासक की ही प्राचिरादि गति होती है निर्गुणोपासक की नहीं होती] जीव मुख्य प्राणलिंगान्नेति चेन्नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वादिहतद्यो. गात्॥१॥३०॥
अन्यद्बाधकद्वयमाशंकते । ननु यद्यपि ब्रह्मधर्मा भूयांसः प्रकरणे श्रुयन्तं तद्वज्जीवधर्मा मुख्यगणधर्माश्च बाधमः सन्ति । न वाचं