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प्रज्ञात्मेति । अत्र क्रियाज्ञान शक्तिमान् निदिष्टः । तदन्वेकैकस्य धर्मस्य प्रशंसा, "यो वै प्राणः सा प्रज्ञा, या प्रज्ञा स प्राणः" इत्युपसंहाराद् ।
क्रिया और ज्ञान शक्तियां भगवदीय है' इनका देह के साथ जो उत्क्रमण होता है, वह जीव की ब्रह्माधीनता के कारण है (अर्थात् इन धर्मों का उत्क्रमण ब्रह्म के सकाश होने से ही होता है, तो ये ब्राह्म धर्म, जीव ब्रह्म के अधीन है इसलिए ये जीव के साथ उत्क्रमण करते है ; ब्राह्म धर्म के रूप में) शंका होती है कि "प्राणस्तथानुगमात्" सूत्र में तो प्राण शब्द से ब्रह्म का ही प्रतिपादन किया गया है तब फिर, धर्म के उत्क्रमण की ही बात कैसे कही जा सकती है ? (समाधान) इस प्रसंग में धर्म और धर्म की एकता और भिन्नता बतलाई गई है (अर्थात् भिन्नाभिन्नता बतलाई गई है) जैसे कि-"प्राणो वा अहमस्मिन् प्रज्ञात्मा" इत्यादि । इसमें क्रियाज्ञान शक्तिमान् का निर्देश किया गया है ।" यो वै प्राणः सा प्रज्ञा" इत्यादि में परस्पर एक-एक के धर्म की प्रशंसा करते हुए प्रकरण का उपसंहार किया गया है।
पुनस्तयोरेवोत्क्रमणप्रवेशाभ्यां सह ह्यवास्मिन् । शरीरे वसतः सहोत्क्रामत इत्युपक्रम्य सुषुप्तिमू मरणेषु प्राणाधीनत्वं सर्वेषा मिन्द्रियाणामुक्त्वा प्रासन्यव्यावृत्वर्थ प्रज्ञयैक्यं प्रतिपाद्योपसंहरति ।
पुनः इसी प्रकरण में इन दोनों का उत्क्रमण और प्रवेश भी साथ बतलाते हुए, इस शरीर में दोनों का वास कह कर दोनों के सहोत्क्रमण का उल्लेख किया गया है और सुषुप्तिमूर्छामरण अवस्थानों में भी इन्द्रियों की प्रारणाधीनता बतलाकर प्राण और प्रज्ञा की एकता का प्रतिपादन करते. हुए उपसंहार किया गया हैं ।
पुनर्ज्ञानशक्तेरुत्कर्षवक्तुं--"प्रथखलु यथा प्रज्ञायाम्" इत्यारभ्य “नहि प्रज्ञापेतोऽर्थः कश्चन् सिद्धयेत्" इत्यन्तेन ज्ञानशक्त्युत्कर्ष प्रतिपाद्य धर्ममात्रत्व निराकरणाय ज्ञानशक्तिमंतं भगवन्तं निर्दिशति, नहि प्रज्ञातव्यमित्यारग्य "मन्तारंविद्यात्" इत्यन्तेन । तदनु ज्ञानक्रियाशक्त्योर्विषयभूत भूतमात्रारूप जगतो भगवदभेदं प्रतिपादयन्" स एष प्रज्ञात्माऽनंदोऽजरोऽमृतः" इत्युपसंहरति ब्रह्म धमः । अतः क्रियाज्ञानविषयरूपो भगवानेवेति प्रतिपाद्य न तावन्मात्रं ततोऽप्यधिक इत्येकोपासनव विहिता। तस्माज्जऽजीवरूपत्वात् सर्वात्मकं ब्रह्म वेति महावाक्यार्थः सिद्धः ।