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दिखलाया गया है, अन्तिम अधिकरण में परब्रह्म के प्राकृतिक संश्लेष का निराकरण किया गया है इस प्रकार प्रथम पाद शब्द संदेह का निवारक है।
ये पुनः क्वचित् सगुणनिर्गुणभेदं प्रतिपादयंति, ते स्वयमेव स्वस्य ब्रह्मजिज्ञासानधिकारं बोधयंति, ब्रह्मवादे सांख्यानामिव गुणानामंगीकारात् । भौतिक गुणानाम संबंधार्थमेव ह्यध्यायारम्भः अन्यथा सर्वस्यापि तत्कारणस्वेन तत्संबंन्धस्य विद्यमानत्वादन्यनिराकरणेन त प्रतिपादकत्वनिधारकाधिकरणानां वैयर्थ्य मेव । ___ जो लोग ब्रह्म के सगुण निर्गुण भेद का प्रतिपादन करते हैं, वे स्वयं अपने ही ब्रह्म जिज्ञासा के अनधिकार को बतलाते हैं, क्योंकि वे सांख्यवादियों की तरह, ब्रह्मवाद में गुणों को स्वीकारते हैं । ब्रह्म में भौतिक गुणों से कोई सम्बन्ध नहीं है, ये बतलाने के लिए ही अध्याय का प्रारंभ किया गया है। यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो, समस्त विश्व का कारण वह ब्रह्म ही तो है सब कुछ उससे सम्बन्धित है, अन्य का निराकरण करने से, ब्रह्म के अस्तित्व को बतलाने वाले अधिकरण व्यर्थ हो जावेंगे [अर्थात् भौतिक गुण तो वस्तुतः नित्य नहीं है उनका ध्वंस हो जाता है यदि भौतिक गुणों से परमात्मा का सम्बन्ध मानेंगे तो परमात्मा का ध्वंस भी स्वीकारना पड़ेगा]
अर्थसंदेह निराकरणार्थ द्वितीयाद्यारम्भः, तत्रार्थो द्विविधो जीवजडात्मकः प्रत्येक समुदायाभ्यां त्रिविधः, तत्र प्रथमं जीवपुरःसरेण संदेहा निवार्यन्ते ।
अर्थ संदेह का निराकरण करने के लिए द्वितीय पाद के प्रथम अधिकरण को प्रस्तुत करते हैं, अर्थ, जीव और जड भेद से दो प्रकार का है, इनके प्रत्येक के तीन भेद हैं। इनमें से सर्व प्रथम जीव सम्बन्धी मर्थ का संदेह निवारण करते हैं।
इदाम्नायते "सर्व खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति, शांत उपासीत-" अथखलु ऋतुमयः पुरुषो यथा ऋतुरस्मिल्लों के पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति, स क्रतुंकुर्वांत मनोमयः प्राण शरीर" इत्यादि । तत्र वाक्योपक्रमे "सवं खल्बिदं ब्रह्मति" सर्वस्य ब्रह्मत्वं प्रतिज्ञाय, "तज्जलानिति' सर्व विशेषणं हेतुत्वेनोक्तवा तत्त्वेनोपासनमुक्तम् ।
ऐसा वचन पाता है कि - "यह सब कुछ ब्रह्म स्वरूप है, उन्हीं से उत्पन्न और उन्हीं में लीन है" यह पुरुष कर्ममय है, इस लोक में जैसा कर्म करता है