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ब्रह्मोपनिषद् इत्यादि ब्रह्म शब्द का प्रयोग किया जाता है, इसलिए यही मानना उपयुक्त है कि पादों का उल्लेख छन्द के लिए ही है, ब्रह्म के धर्म के रूप में पादों का उल्लेख नहीं है ।
उक्त शंका का निराकरण करते हैं-पादों को ब्राह्म धर्म मानने में दोष नहीं है, यह जो रूपक है वह चित्त की एकाग्रता का सूचक है । इसके द्वारा चित्त की एकाग्रता होती है, यही बात "गायत्री वा इदं" इत्यादि में दिखलाई गई है। सभी जगह गायत्री का अक्षरों के रूप में ही प्रयोग नहीं होता । जैसे कि सूई के द्वारा सूत्र का हर जगह सरलता से प्रवेश हो जाता है, वैसे ही गायत्री के द्वारा उसके प्रतिपाद्य ब्रह्म में बुद्धि का प्रवेश हो जाता है । ऐसा ही प्रायः देखा जाता है। स्थूला बुद्धि का ब्रह्म में प्रवेश होना सम्भव नहीं होता। इससे सभी मन्त्रों की व्याख्या हो गई, अर्थात सभी मन्त्रों में ब्रह्म ज्ञान कराने की अद्भुत क्षमता है । सूत्र में प्रयुक्त हि शब्द बतला रहा है कि यह स्वयं प्रविष्ट होने में समर्थ नहीं है, इस उपाय से ही प्रविष्ट हो सकता है। यह कार्य अदृष्ट द्वारा हो जाता है ऐसा मानना भी अन्याय है, क्योंकि दृष्ट साधन सम्भव है। इससे यही निश्चित होता है कि पादों का ब्रह्मधर्म रूप से ही वर्णन है ।
भूतादिपादव्यपदेशोपपत्तश्चवम् १।१।२५।।
किं च भूतादयोऽत्र पादा व्यपदिश्यन्ते, भूतपृथ्वीशरीरहृदयानि चत्वारि, न हि एतानि गायत्र्याः पादा भवितुमर्हति । ब्रह्मपरिग्रहे तूपपद्यते । यावन्मुख्यमुपपद्यते तावन्न गौणं कल्पनीयम् । अयमर्थः, पूर्वहेतौ छन्दसोऽपि पादा व्यपदेशाद् भवंति, तथापि ब्रह्मण एव युक्ता इति । पुरुषसूक्त एतावानस्येत्यस्य ब्रह्मपरत्वात् । अस्मिन् वाक्ये तु गायत्र्याः पादा एव नोपदिष्टाः किन्तु ते ब्रह्मण एव पादा इति । तद्वाचकत्वेन गायत्र्यामुपचारेणोपसंहारः। चकारादर्था न शब्दस्य पादा भवंति, किन्तु अर्थस्यैवेति । तस्माद् ब्रह्मवाक्य त्वे भूतादीनां पादत्वमुपपद्यते नान्यथेति तस्मात् पादानां ब्रह्मधर्मत्वम् ।
यहां इस प्रकरण में भूत पृथ्वी शरीर और हृदय प्रादि चारों को पाद बतलाया गया है, ये चारों गायत्री के पाद नहीं हो सकते, ब्रह्म के तो हो