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आत्मेति विद्यात्" इत्यन्तम् । तत्र वरदाने "मामेव विजानीहि एतदेवाह मनुष्याय हिततमं मन्ये" इत्युपक्रम्य त्वाष्ट्रवधादिनात्मानं प्रशस्य स्वोपासनायाः पापाभावं फलत्वेन प्रतिपाद्य “कस्त्वम्" इति विवक्षायां "प्राणो वा अहमस्मि प्रज्ञात्मानं मामायुरमृतम् इत्युपास्त्रे" त्युक्त वा आयुषः प्राणत्वमुपपाद्य अमृतत्वं च प्राणस्योपपाद्य "प्राणेन ह्यवामुष्मिल्लोके अमृतत्वमाप्नोति" इति अमृतत्वं योगेन प्रतिपादयति । तत्र संदेहः प्राणः किमासन्यो ब्रह्म वेति ।
कौषीतकि ब्राह्मणोपनिषद् में इन्द्र और प्रतर्दन का संवाद है। वह संवाद "प्रतर्दनो ह वै" से प्रारंभ होकर "एष लोकपाल एष लोकाधिपति" इत्यादि वाक्य तक वर्णित है। उसमें वरदान के प्रसंग में-"मुझे ही जानो, यही मनुष्य का हिततम मार्ग है" ऐसा उपक्रम करके त्वाष्ट्र के वध इत्यादि से आत्मा की प्रशंसा कर आत्मोपासना से–फलरूप से पापों की क्षीणता बतलाकर "तुम कौन हो ?" ऐसी आकांक्षा होने पर “मैं प्राण है" इत्यादि से जीवन के प्राणत्व का प्रतिपादन करके तथा प्राण के अमृतत्व का उपपादन करके, “इस लोक में प्राण से ही अमृत प्राप्त होता है" इत्यादि में प्राण से अमृतत्व योग का प्रतिपादन किया गया है। इस पर संशय होता है कि-यह देहस्थ प्राण का वर्णन है या ब्रह्म का? ।
अत एव प्राण इत्यत्र प्राणशब्द मात्रे संदेहःअत्रार्थेऽपि संदेहः । बाधक च वर्तत इति पृथगधिकरणारंभः। तत्र साधकासाधारणधर्मस्याभावाद् बाधकानां विद्यमानत्वान्न ब्रह्मत्वमिति पूर्वपक्षः।
"अत एव प्राणः" सूत्र में तो प्राण शब्द मात्र पर संदेह किया गया श्रा, यहाँ अर्थ पर भी संदेह व्यक्त करते हैं । पृथक् अधिकरण प्रस्तुत करने का मुख्य कारण यह है कि-जीव भी प्राण शब्द से पुकारा जाता है । इस प्रकरण में, प्राण के किन्हीं असाधारण धर्मों का तो उल्लेख है नहीं इसलिए प्राण को ब्रह्म मानने में स्पष्ट बाधा है, अतः यह प्रकरण ब्रह्मत्व का प्रतिपादक नहीं है । ऐसा पूर्वपक्ष है।
सिद्धान्तस्तु-चतुर्भिः सूत्रैः प्रतिपाद्यते, तत्र प्रथमं साधकधर्ममाहैकेन, त्रिभिबधिक निराकरणम् । प्राणः परमात्मा भवितुमर्हति, कुतः ? तथाऽनु