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હર
"पादोऽस्य भूतानि" अर्थात् सारे भूत एक पाद हैं, "तीन पाद अमृत आकाश में हैं" ऐसा एक वर्णन है तथा "उस पुरुष के एक पाद में सारे भूतों के पाद स्थित हैं, उसके कल्याणमय अमृत अभय तीन पाद ऊपर हैं" ऐसा दूसरा वर्णन है । पुरुष सूक्त में यह दूसरा वर्णन ही घटित होता है । प्रथम वर्णन में दिवि इस मन्त्र में, प्राधार अर्थ में सप्तमी का प्रयोग है तथा “प्रतः परम्" में पंचमी का प्रयोग किया गया है जो कि अनाधारत्व की वाचिका है। इस प्रकार उपदेश का भेद है जिससे अर्थसाम्य नहीं होता । इससे ज्ञात होता है कि ज्योतिः शब्द ब्रह्मत्व का द्योतक नहीं है ; इत्यादि दोष नहीं होगा, क्योंकि दोनों अर्थ अविरुद्ध हैं। मन्त्र में दिवि का जो प्रयोग किया गया है, वह इस वाक्य में सर्वत्रता का बोधक है, सर्वत्र विद्यमान की दिव में आधारकता कोई विरुद्ध बात नहीं है । अतः शब्द से उसकी अविद्यमानता का बोध होता हो सो बात नहीं है, अपितु उसमें भी अन्यत्र विद्यमानता का भाव निहित है। इस प्रकार सप्तमी पंचमी का निर्देश अविरुद्ध है । द्वितीय वर्णन में तो अमृत पद, ज्योति पद वाची है जो कि प्रकारान्तर से चतुर्थ पाद हृदय के रूप में बतलाया गया है। शब्द से तो सबका भेद बतलाया गया है, उपदेश के भेद होने से एकवाक्यता भी नहीं है । इस वाक्य में चरण शब्द का स्पष्ट उल्लेख भी नहीं है, स्वरूप से ही वस्तु की प्रतीति हो रही है, इसलिए कोई दोष नहीं है। ज्योतिपद और अमृतपद दोनों में एक ही अर्थ का बोध हो रहा है इसलिए कोई विरुद्धता नहीं है । ऊपर के लोकों में तीन पादों की स्थिति बतलाई गई है तथा चौथे की सर्वत्र स्थिति बतलाई गयी है । यदि ऐसा नहीं मानेंगे तो णादों की विभिन्न जातीयता हो जायगी, तथा परिच्छेद का भी विरोध होगा । अमृत और ज्योति शब्दों की एकार्थता होने से एकवाक्यता सिद्ध होती है। इस प्रकरण में चरणों का उल्लेख होने से, वे ब्रह्म के धर्म ही सिद्ध होते हैं, अतः ज्योति शब्द ब्रह्मवाचक ही है।
१० अधिकरण
प्राणस्तथाऽनुगमात् ।१।१।२७॥
अस्ति कौषीतकिब्राह्मणोपनिषदि इन्द्रप्रतर्दनसंवादः--"प्रतर्दनी है वै देवोदासिः" इत्यादिना "एष लोकपाल एष लोकाधिपतिरेष लोकेशः सेम