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पादन करके उन्हें ब्रह्म के ही चार चरण कहा गया है । पुरुषसूक्त में भी चारों आश्रमों के जीवों को चार चरण बतलाया गया है । तथा प्रणवब्रह्म-विद्या में अकार, उकार, मकार और नाद को विश्व, तेजस, प्राज्ञ और तुरीय नामक चार चरण कहा है। उन्हें ही विष्णु का परम पद कहा है। ब्रह्मपुच्छ इत्यादि में भी शिर, दोनों पक्ष और पुच्छ रूप से चार चरणों का उल्लेख है । सत्यकाम ब्राह्मण में तो स्पष्ट रूप से ब्रह्म के चार चरणों का निरूपण है । इस प्रकार सच्चिदानन्दरूप परमात्मा के प्रत्येक समुदायों के चार रूप कहे गए हैं । उनमें तीन की कार्यता है, चतुर्थ चरण का ही ब्रह्मत्व है।
तत्रापि षड्विधत्व प्रतिज्ञानात् भूतपृथिवीशरीराणां परिचायकत्वेन षड्विधत्वमनिरूप्य हृदयस्य षड्विधत्वं निरूपयंस्तस्य ह वा एतस्येत्यादिना पंच देव-पुरुषांन्निरूप्य तेषां द्वारपालत्व ज्ञानानन्तरम्, “अथ यदतः परो ज्योतिर्दीप्यत" इति चतुर्थ पादस्य षष्ठविधत्व प्रतिपादनात् । अतश्चतुर्थपादे पंचपुरुषास्तवः परो दिवो ज्योतिः षष्ठस्तस्यैव सर्वत्र दीप्यमानत्वं निरूप्य तदेवान्तःपुरुषो उपसंहरति । तस्मात् "त्रिपादस्यामृतं दिवि" इत्युक्तत्वादस्य त्रिपात् संबंधि अमृतमुपरितनलोकेष्विति । अतोऽत्र चतुर्थः पादो निरूप्यत इति सिद्धम् । अतः पादानां ब्रह्मधर्मत्वाज्ज्योतिषो ब्रह्मस्वमिति । ब्रह्म धर्म निर्णयार्थमिदमधिकरणं चरणानामौपचारिकत्वव्यावृत्त्यर्थम् एतनिर्णयेन प्रणवादिविद्या निर्णीता वेदितव्याः ।
यद्यपि गायत्री चतुष्पदा कही गई, उसके भी भूत पथिवी शरीर आदि के भेद से छः रूप हैं ऐसा दिखलाते हुए हृदय की छः रूपों वाली गति विधि का वर्णन करने के लिये, "ह वा एतस्यैतानि'' इत्यादि से पंचदेव पुरुषों का निरूपण करके उनका द्वारपाल के रूप में वर्णन करके “यदतः परो ज्योति र्दीप्यत" इत्यादि से चतुर्थ पाद के ही छः रूप दिखलाये गये हैं । चतुर्थ पाद के पंच पुरुष और दिव्य परज्योति की ही सर्वत्र दीप्ति बतलाकर उसी का अंतःपुरुष रूप में उल्लेख किया गया है । उनके पूर्व तीन पाद अमृत रूप हैं जो कि ऊपर के लोकों में व्याप्त हैं, और चौथा पाद पृथ्वी में है यही दिखलाया गया है। ये पाद ब्रह्म के धर्म स्वरूप हैं, इसलिए यह ज्योति ब्रह्म है । यह प्रकरण ब्रह्मधर्म के निरूपण के लिए ही प्रस्तुत है,