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छांदोग्योपनिषद् में -- " हे स्तोत्र पाठक ! जो देवता प्रस्ताव में अनुगत हैं" ऐसा उपक्रम करके " वह देवता कौन है ? ( इस जिज्ञासा पर उषस्ति ने प्रस्तोता से कहा) 'प्राण' ही देवता है, ये सारे भूत समुदाय प्रारण में ही प्रवेश करते हैं और प्रारण से ही उत्पन्न होते हैं, वे देवता ही प्रस्ताव के लिए अनुगत हैं" इत्यादि ।
इस पर संशय होता है कि यह प्राण, जीवों में निवास करने वाला प्राणवायु है अथवा ब्रह्म ? पूर्व सूत्र की तरह यहाँ भी पूर्वपक्षी श्रीर सिद्धान्ती अपने तर्क प्रस्तुत करते हैं ।
नन्वधिकरणानां न्यायरूपत्वात् सर्वत्र गमिष्यति, किमित्यतिदिशति ? इति उच्यते - प्रारणस्य मुख्यस्यापि सर्वभूत संवेशनं स्वापादौ श्रुतावेवोपपाद्यते " यदा वै पुरुषः स्वपिति प्राणं तर्हि वागप्येति" इत्यादिना । तत्र यथा प्रारणविद्याया न ब्रह्मपरत्वमेवमेवास्यापि न ब्रह्मपरत्वमिति, न न्यायेन प्राप्नोति । अत्रैव प्रकरणे ब्रह्मपरत्वे कल्प्यमाने न किंचिद् बाधकं तथैव ब्रह्म परत्वं कल्पनीयम् इति, न त्वन्यस्मिन् संभवे तत्परत्वमिति । अतएव तल्लिंगात् प्रारण शब्द वाच्यं बह्म ेति ।
कहाँ है, यहाँ भी अधिकरण के
हो
रहा है । इस पर कहते रूप से
उपपादन किया
इसमें तर्क प्रस्तुत करने का अवकाश ही अनुसार सभी जगह प्रसिद्ध प्रारण का ही बोध हैं कि - " यदा वै पुरुषो" इत्यादि में प्राण को गया है, उस मुख्य प्रारण की समस्त भूतों में संवेशन की स्पष्ट चर्चा की गई है । जैसे प्रारण - विद्या की ब्रह्म-परता नहीं है वैसे ही इस प्रकरण में भी ब्रह्म-परता नहीं है । श्रीर न नियम से भी ब्रह्म-परता निश्चित होती है । यदि प्रकरण में ब्रह्म-परता की कल्पना करने में कोई बाधा नहीं है तो प्राणविद्या में भी ब्रह्म-परत्व की कल्पना करनी चाहिये, वहाँ क्यों नहीं की जाती ? जब किसी अन्य के अस्तित्व की संभावना है तो प्रारण शब्द ब्रह्मपरक कैसे हो सकता है ?
धर्म
इस पर सिद्धान्त प्रस्तुत करते हैं कि जैसे आकाश के लिए परमात्मसम्बन्धी लिंग मिलते हैं, वैसे ही प्रारण के लिए भी मिलते हैं, इसलिए ब्रह्म ही प्रारण शब्द वाच्य है |